पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४५४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४३. [प्रतापनारायण-ग्रंथावली सना०--मैं अलता तो किसी बात में नही हूँ पर जो बातें पंच को अप्रिय हैं उन्हें परमेश्वर की अप्रिय अवश्व समझता हूँ और आप को व्यसन है कि उन्ही बातों को अपने धर्म का झंडा समझते हो जिसके द्वारा दूसरों का जी अपने वर्तमान भाव से बिचल जाय । नहीं तो शब्दों के पीछे झगड़ा उठा के किसी को कुंठित करना धर्म, सभ्यता, बुद्धिमत्ता सभी के विरुद्ध है। अतः बुद्धिमान को चाहिए कि जिस समूह से बातचीत करे उस से उसी के अनुकूल शिष्टाचार का बर्ताव करे। नव-इस रोति से तो सलाम, बंदगी, गुडमानिङ्ग आदि का प्रयोग भी आप के कथनानुसार उचित ही ठहरेगा। ___सना-हई है ! मुसलमानों और क्रिस्तानों से कौन हिन्दू पालागम आशिर्वाद करने जाता है। नव०--वह लोग अन्यधर्मी और अन्यजातीय है। उन के साथ उन्हीं का सा शिष्टा- चार न करें तो काम न चले। यदि वे रूठ जायं तो बहुत से कामों मे विघ्न पड़ने का भय है। ____सना०--धन्य है इस समझ को कि जो सब बातों में पायंक्य रखते हों उनके साथ तो आप अनुकूल आचरण रखें और भय करें पर अपनों को चिढ़ाने में तत्पर रहें। इस से तो जान पड़ता है कि आप के से चित्त बाले डर के कारण बिमा सब के प्रतिकूल ही बर्ताव रखने की प्रकृति रखते हैं। पर स्मरण रखिए ऐसा आचार शिष्ट पुरुषो का नहीं होता, अस्मात शिष्टाचार नहीं कहा जा सकता। ___नव०--अच्छा दीनबन्धु दयासिन्धु, फिर हम आप से क्या कही करें जिसमे आप हमे शिष्ट समझें? सना०--आज आपको क्या हो गया है कि जो बात कहते हैं निन्दा व्यंजक ही कहते हैं । भला बिचारिए तो दीन का बन्धु भी दीन के अतिरिक्त कौन हो सकता है ? जब तक परमेश्वर चलने फिरने की शक्ति और खाने पहिनने की सामर्थ्य तथा बन्धुवर्ग में सुख प्यार बनाए है तब हमे दोनो का बन्धु अथवा हमारे बन्धुगण को दीन कहना अशुभ चिन्तन है ! योंही हम हिन्दुओं में "दया धर्म को मूल है नकमूल अभिमान' की कहावत सब छोटे बड़ों के मन और बचन में बिराजती रहती है। फिर हम दया के डूबो देने वा बहा देने वाले अथवा समुद्र के जल की भांति दूसरों की तृषा शांत करने मे अयोग्य दया रखने वाले क्योकर कहे जा सकते हैं। नव.--भला इन सब शब्दों का अर्थ जैसा आप व्याकरण की रीति से कर गए वैसा ही सच्चे अंतकरण से मानते हैं ? सना०--आप हमारे पास यदि कभी सच्चे अन्तःकरण से मित्रतापूर्वक कथोपकथन करके किसी विषय का निर्णय करने आए होते तो हम भी तदनुकूल व्यवहार करते। नव.---यह आप ने कैसे जाना कि हम शुद्ध मानस से मिलने नहीं आते ? सना०-भैया रे ! 'हित अनहित पसु पच्छिउ जाना । मानुसतन गुन ज्ञान निधाना ।।' विशेषतः दो चार बार के बार्तालाप से कभी आंतरिक भाव खुले बिना नहीं रहता!