पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४५६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४३२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली मुसलमान कुरान और हदीस के वचन सुने अनसुने करके अपनी जिद का निबाह करेंगे, इस मामले में हमारा साथ न देंगे। फिर यदि हम भी कुछ न करें तो दश ही पांच वर्ष में हमारी क्या दशा होगी? यही विचार कर कई नगरों में चंदा, गोशाला, सभा, लेख, लेकचर इत्यादि हो भी चले । बरंच बाजे २ भाग्यशाली शहरों में मिष्ट मुसलमान भी शरीक हैं ! परमेश्वर उनका सहायक हो। पर बड़े खेद और लज्जा का विषय है कि इस कानपुर में, जहां हिंदू ही अधिक हैं, विशेषतः ब्राह्मण ही क्षत्री धन, विद्या, प्रतिष्ठा आदि सामध्यं विशिष्ट हैं, परंतु इस बात में यदि दूसरे चौथे वर्ष किसीके हुलियाए २ कुछ मन भी करते है तो बस कुछ दिन टांय २ पीछे फिस्स । जहाँ कोई मुठ मूठ का बे सिर पर का बहाना मिल गया वहीं बैठ रहे । यदि किया चाहें तो केवल दो चार लोग मिल के सब कुछ कर सकते हैं, पर होसिला नही है ! हजारों रुपया व्यर्थ उठाते हैं, पर इस विषय में मुंह चुराते हैं। इन शहर वालों से तो हम अपने सुहृद अकवरपुरवासियों की धर्मनिष्ठता, ऐक्यता, उद्योग, उत्साह और साहसकी सराहना करेंगे जहाँ श्रीयुत् पंडितवर बद्रीदीन जी सुकुल, श्रीयुत् बाबू तुलसीराम जी अग्रवाल और श्रीयुत लाला टेकचंद्र महोदयादिक थोड़े से सज्जनों के आंदोलन से दो ही महीना के भीतर अनुमान छः सौ के रुपया भी एकत्र हो गया, सभा भी चिरस्थायिनी स्थापित हुई है, व्याख्यान भी प्रति सप्ताह मनोहर होते हैं और सबने कमर भी मजबूत से बांध रक्खी है। ___ क्यों भाई नगरनिवासियों ! अधिक न करो तो अपने जिले के लोगों को कुछ तो सहाय दोगे ? जहां सैकड़ों की आतशबाजी फूंक देते हो, हजारों दिवालियों को दे बंटते हो, अदालत में उड़ाते हो, वहाँ गऊमाता के नाम पर कुछ भी न निकलेगा ? धर्म, नामवरी, लोक परलोक का सुख सब हैं, पर हौसिला चाहिए !. खं• ? खं० ? वाजिदअलीशाह हाय ! आज हमी नहीं रो रहे हैं, हमारी लेखनी का भी हृदय विदीर्ण हो रहा है ! हंसी मत समझो, मारे दुःख के उन्माद हो रहा है, इससे रक्त काला पड़ गया है और बांसुओं के साथ नेत्र द्वारा बहा जाता है। हमारा कानपुर यवनों का नगर नहीं सही, पर लखनऊ यहां से दूर नहीं है, बरंच यहां से सहस्रों संबंध रखता है। फिर क्यो न लखनऊ के साथ इसे भी शोक हो । संपादक और उसके मित्र श्री बाबू राधेलाल आदिक कई लोग प्रत्यक्ष अश्रुवर्षा कर चुके हैं। यह बात किसी के देखने को नहीं, बरंच हृदय के सच्चे संताप से थी। हाय शाह वाजिद अली ! हा सुलताने आलम ! हा अखतर ! • 'निबंध-नवनीत' से उद्धृत ।