पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४५९

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स्वतंत्र]
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स्वतंत्र ] बाजे २ महकमों में अवसर पड़ने परम दिन छुट्टी न रात छुट्टी, पर छुट्टी का यत्न करें तो नौकरी से छुट्टी हो जाने का सर है। इस पर भी बोकही मालिक को मिगाव का हुवा तो और भी कोड़ में खाज है, पर उसको झिड़की आदि न खाएं तो रोटी ही कहां से खाएं। यह छूते न भी हों तो भी नौकरी की जड़ कितनी ? ऐसी २ बातें बहुधा देवकर कौन म कहेगा कि काले रंग के गोरे मिजाज पाले साहब अपने निर्वाहो- पयोगी कर्तव्य में भी स्वतंत्र नहीं हैं। अब घर की दशा देखिए तो यदि कोऊ और बड़ा बूढ़ा हुवा और उनका दल न हवा तो तो जीभ से चिट्ठी का लिफाफा चाटने तक की स्वतंत्रता नहीं। बाहर भले ही जाति कुनाति अजाति के साप भन्छ कुभच्छ अभच्छ भन्छन कर भावे, पर देहली पर पांव धरते ही हिन्द माचार का नाटय न करें तो किसी काम के म रखे जाएं । बहत नहीं तो वाक्यवाणों ही से छेद के छलनी कर दिए जायं । हयादार को इतना भी थोड़ा नहीं है। हो यदि 'एक लब्बाम्परित्यज्य लोक्य विजयी भवेत्' का सिद्धांत रखते हों, और खाने भर को कमा भी लेते हों, वा घर के करता धरता आप हो हों तो इतना कर सकते हैं कि बबुआइन कोई सुशिक्षा दें तो उनको डांट लें, पर यह मजाल नहीं है कि उन्हें अपनी राह पर ला सके, क्योंकि परमेश्वर की दया से अभी भारत की कुलांगनाओं पर कलियुग का पूरा प्रभाव नहीं हुवा। इससे उनमें सनातन धर्म, सत्कर्म, कुलाचार, सुव्यवहार का निरा अभाव भी नहीं है। आपरूप भले ही तोयं व्रत, देव पितर आदि को कुछ न समझिए पर वे नंगे पांव माघ मास में कोसों की पकावट उठाकर गंगा यमुनादि का स्नान अवश्य करेंगी, हर- तालिका के दिन चाहे बरसों की रोगिणी क्यों न हों, पर अन्न की कणिका व जल की बूंद कभी मुंह में न धरेंगी, रामनीमी, जन्माष्टमी, पितृविसर्जनी आदि आने पर, चाहे जैसे हो, थोड़ा बहुत धर्मोत्सब अवश्य करेंगी। सच पूछो तो आयत्व की स्थिरता में अने- कांश श्रद्धा दिखाती हैं, नहीं आपने तो छब्बीसाक्षरी मंत्र पढ़ कर चुरुटाग्नि में सभी कुछ स्वाहा कर रक्खा है। यद्यपि गृहेश्वरी के यजन भजन का उद्देश्य प्रायः आप ही के मंगलार्थ होता है, पर आप तो मन और बचन से इस देश ही के न ठहरे । फिर यहां वालों के आन्तरिक भाव कैसे समझें ? बन्दर की ओर बरफी लेकर हाथ उठाओ तो भी वह ढेला ही समझ कर खी खो करता हुवा भागेगा! विचारी सीधी सादी अबला बाला ने न कभी विधर्मी शिक्षा पाई है, न मुंह खोल के कमी मरते मरते भी अपने पराए लोगों में नाना भांति की जटल्ले कहने सुनने का साहस रग्यती हैं। फिर बाबू साहब को कैसे लेक्चरबाजी करके ममझा दें कि तोता मैना तक मनुष्य की बोली सोख के मनुष्य नहीं हो जाते, फिर आप ही राजभाषा सीख कर कैसे राजजातीय हो जायंगे ? देह का रंग तो बदल ही नहीं सकते, और सब बातें क्योंकर बदल लीजिएगा? हां दूसरे की चाल चलकर कृतकार्य तो कोई हुवा नहीं, अपसी हंसी कराना होता है, वही करा लीजिए ।