पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४६०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथा की ___ अब यहां पर विचारने का स्थल है कि जहां दो मनुष्य न्यारे २ स्वभाव के हो, और एक की बातें दूसरे को घृणित जान पड़ती हों वहां चित्त की प्रसन्नता किस प्रकार हो सकती है । की चाहे धर्म के अनुरोध से इनकी कुचाल को सहन भी कर ले, पर लोकलना के भय से गले में हाथ डाल के सैर तो कभी न करेगी, और ऐसा न हुवा तो इनका जन्म सफल होना असंभव है। इनसे मन ही मन कुढ़ने वा बात २ पर खौखियाने के सिवा कुछ बन नहीं पड़ता, फिर कैसे कहिए कि आप अपने घर में स्वतंत्र हैं। रही घर के बाहर की बात, वहां अपने ही टाइप वालों में चाहे जैसे गिने जाते हों, पर देश का अधिकांश न इनकी प्यारी भाषा को समझता है, न भेष पसंद करता है, न इनके से आंतरिक और बाहिक भावों से रुचि रखता है ! इससे बहुत लोग तो इनकी सूरत ही से किष्टान जान कर मुंह बिचकाते हैं। इससे इनका बक २ झक २ करना देशवासियों पर यदि प्रभाव करे भी तो कितना कर सकता है। हां जो लोग इनके संबंधी हैं, और भली भांति ऊपरी व्यवहारों से परिचय रखते हैं वे कोट पतलून आदि देख के न चौंकेंगे, किंतु यदि इनके भोजन की खबर पा जायं तो क्षण भर में दूध की मक्खी सी निकाल बाहर करें। छुवा पानी पीना तो दूर रहा, इन्हें देख के मत्था पटकोवल (दुवा सलाम ) तक के रवादार न हों। एक बार हमने एक मित्र से पूछा कि बहुत से अन्यधर्मी और अन्यजाती हमारे आपके ऐसे मित्र भी हैं, जिनके समागम से जी हुलस उठता है, पर यदि कोई हमारा आपका भयाचार, नातेदार वा परिचयी विधी हो जाता है- विधर्मी कैसा, किसी नई समाज में नाम जक लिखा लेता है-- तो उसे देख के घिन आती है । बोलने को जी नहीं चाहता। इसका क्या कारण है ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा था कि- वेश्याओं के यहां हम तुम जाते हैं कि कुछ काल जी बहलावेंगे, किंतु यदि कोई अपनी संबंधिनी स्त्री का, बाजार में जा बंटना पैसा, गुप्त रीति से भी वारविलासिनियों का सा तनिक भी आचरण रखती हुई सुन पड़े तो उसके पास बैठने वा बातें करने से जी कभी न बहलेगा, बरंच उसका मुंह देख के वा नाम सून के लजा, क्रोध, घृणा आदि के मारे मन में आवैगा कि अपना और उसका जी एक कर डालें। ___ यों ही परपथावलंबियों का भी हाल समझ लो। यह जीवधारियों का जाति स्वभाव है कि इतरों में अपनायत का लेश पाकर जैसे अधिक मादर करते हैं वैसे ही अपनों में इतरता की गंध भी आती है तो जी बिगाड़ लेते हैं और जहा एक मनुष्य को बहत लोगों के रुष्ट हो जाने का भय लगा हो वहां स्वतंत्रता कहाँ ? अतः हमारे लेख के लक्ष्य महाशय कुटुंब की अपेक्षा देश जाति वालों के मध्य और भी परतंत्र हैं। यदि यह समझा जाय कि घरदुवार, देशजाति को तिलांजलि देकर जिनके साथ तन्मय होने के अभिलाषी हैं, उनमें जा मिले तो स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं। यह आशा निरी दुराणा है। उप प्रकृति के अंगरेज ऐसों को इस विचार से तुच्छ समझते