पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४६४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-चावली में बहुत बार बहुत सहयोगी लिख चुके हैं और अनेक मुकदमों में सर्कार ने स्वयं उर्दू का दुरंगापन देख लिया है अतः यह पिष्टपेषण न करके हम 'मुतंजा' के शब्द का समाधान करते हैं। सिवाय नागरी के जिसने अक्षर हैं,बनावटी और ऊटपटांग, विशेषतः उर्दू के तो कहना ही क्या है। लिखने के समय तो एक लकीर मात्र (1), काम भी केबल 'अ' के दे, पर बोलने में अलि फ। बुद्धिमान लोग बिचार के कहें तो सही कि “लि' और 'फ' से क्या प्रयोजन निकलता है। इसी प्रकार सब अक्षर हैं, विशेषतः 'ज' के होते हुए 'जाल' 'बाद' और 'जो'- इतने अक्षर यदि व्यर्थ न भी माने तो इस देश में, वहां की बोलियों के कड़े से उर्दू बीबी के शरीर का अधिकांश बना है, क्या प्रयोजन निकलता है । हां, पश्चिमीय बोली की धज समझ के 'ज' के नीचे नुत्ता देने की रीति मान ली है, यद्यपि झीगुर की सी बोली बोलना भी यहां वालों को नही सोहता । यदि हम 'मुर्तजा' कह के वही प्रयोजन सिद्ध कर लें तो भी कोई हानि नहीं । उर्दू वाले भी हमारे मंत्र और ब्राह्मणादि शब्दों को मंतर और बरहमन कहते नहीं शरमाते । हम लोग तो ज और ग इत्यादि बोल भी लेते हैं और लिख भी देते हैं। कोई उर्दू के अकील अक्ल के पुतले 'गणित' शब्द लिख तो दें। यों सर्कार नागरी देवी के गुण जान बूझ के भी आदर न करे तो हमारा दुर्भाग्य है पर नागरी सर्वगुणागरी मसखरों के कहने से कदापि दूपित नहीं हो सकती। पचासों मौलवी और मुंशी दिन भर मुर्तजा बोलते हैं, यदि उनके ठीक २ उच्चारण को सुनके कश्मीरी पंडित महोदय ने मुतंजा लिख दिया तो क्या बुरा हुआ। यदि कोई उर्दूभक्त. यह हंसें कि 'ज्वाद' को आवाज न निकली तो उनकी मूल है। खास फारस वालों को भी 'ज्वाद' का उच्चारण 'ज' ही करते सुना है । केवल सत्रह कोने का मुंह बना के कहते हैं सो इससे क्या। 'ज' ज्यों की त्यों हो रहती है : जब उनका यह हाल है तो यहां वालों का कहना ही क्या है । हम एडिटर ही साहब से पूछते हैं, बतावें तो 'ज्वाद' की और 'जे' की आवाज में भेद गया है । शायद फोटोग्राफ भेजें कि 'ऐसा मुंह बना के ज्वाद बोलते हैं। लिख के या बोल के 'ज्याद' और 'जे' की आवाज का फर्क दिखाने वाला हिंदुस्तानियों में तो है नहीं, रहे फारस अरब वाले, उनसे उर्दू का संबंध ही क्या । पर अपने मुंह मियां मिळू बनने वालों की बात न्यारी है। कल को कहेंगे-'मुर्तजा' में 'ये' है लेकिन 'अलिफ' की आवाज देती है सो नागरी में हो ही नहीं सकता। इसके उत्तर में हम भी कह देंगे कि देखने की इंद्री का नाम आंख है पर कोई कान से देखता हो तो हम क्या करें, उर्दू वालों की बुद्धिमत्ता है जो 'ये' को 'अलिफ' की भांति बोलते हैं। हमें क्या, वे "ये' का शुद्ध उच्चारण करें हम 'मुरतजी' लिख देंगे। हठधरमी और बात है पर उर्दू बाले बिचारे क्या दावा कर सकते हैं कि हिंदी में कोई शब्द नही लिखा जा सकता । क्या उनकी भांति सभी के अक्षर अपूर्ण हैं ? ऐसे विहंगम अक्षर के पक्षी को कौन न कहेगा-'लहते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।' खं० ३, सं०८ (१५ अक्टूबर १० सं०१)