पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४६९

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शैशव सर्वस्व]
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शैव सर्वस्व ] धातुओं की आकर्षणशक्ति से वह सीधी धरती में समा जाती है, इससे घर की रक्षा रहती हैं । पाषाण के त्रिशूल बहुत थोड़े मंदिरों में होते हैं। उसमें यह गुण तो नहीं हैं पर यह उपदेश दोनों प्रकार के त्रिशूल देते हैं कि मनुष्य के शारीरिक,सामाजिक एवं मान- सिक दोबल्यजनित भय सदा डराया करते हैं कि देखो शिव के शरण शरण जाओगे तो तुम्हारे संसारी मित्र तुम्हें पागल समझेंगे । तुम्हारा शरीर और मन विषय सुखों से बंचित रह के दुख पावैगा । अथवा कायिक, वाचिक, मानसिक कुबासना बड़े २ लालच दिखाया करती हैं कि हमारे साथ रहने में जीवन का साफल्य है, नहीं तो और संसार में हई क्या ? पर यदि तुम इन संकल्प विकल्प जनित भय, लालच शंकादि की कुछ भटक न करके आगे ही पांव उठाए जाव तो निश्चय हो जायगा कि यह त्रिशूल देखने ही मात्र को हैं, तुम्हें कुछ बाधा नहीं कर सकते ! तुम जब तक शिव के सम्मुख होने को कटिबद्ध न थे तभी तक भ्रमोत्पादन करने मात्र को शक्ति इनमें थी! आगे बढ़िए तो कीर्तिमुख नामक गण की झांकी होगी, ( बहुधा शिवालयों में अरघा के पास वा कुछ दूर पर मनुष्य का सा सिर बना रहता है, वही कीर्तिमुख हैं)। इनके विषय में पुराणों में लिखा है कि एक बार क्षुधित हुए, शिव जी से खाने को मांगा तो उन्होंने कहा कि यहां क्या कर रखा है, अपने ही हाथ पांव खा डालो। इस पर इन्होने ऐसा ही किया ! तब से यह भोलानाथ को अत्यंत प्यारे हैं !! इस कथा का मूलोद्देश्य यह है कि प्रियतम की आज्ञा से यहां तक मुंह न मोड़ो तो निस्संदेह वह कल्याणमय तुम्हें अतिशय प्यार करेगा !!! कीतिमुख जी के दर्शन करके श्री १०८ नागरीदास जी के इस प्रेममय बचन का स्मरण करो तो एक अनिर्वचनीय स्वादु पावोगे, मानो स्वयं कोटि मुख ही आज्ञा कर रहे हैं कि "सीस काटि आगे बरी तापर राखी पांव । इश्क चमन के बीच में ऐसा हो तो आव ॥१॥" और कुछ चल के नंदिवे श्वर जी के दर्शन होंगे, जिन्हें लड़के बूढ़े सभी जानते है कि महेश्वर जी के वाहन हैं, मुख्य गण हैं, उन्हें बहुत प्रिय हैं, वरंच वे वही है ! यह इस बात का रूपक है कि यदि हम परमेश्वर के अभिन्न मित्र हुवा चाहें तो हमें चाहिए कि अपने मनुष्यत्व का अभिमान यहां तक छोड़ दें कि मानो हम बैल है ! पर स्मरण रक्खो, बैल बनना सहज नहीं है ! अपना पेट घास ही भूसे से भरना पर लोकोपकारार्थ सदा सब रीति से प्रस्तुत रहना ! विशेषतः कृषि विद्या, तो एक समय भारतसंपत्ति का मूल थी, 'उत्तम खेती मध्यम बान' आज तक प्रसिद्ध है, पर समय के फेर से इन दिनों लुप्त सी हो गई है, उसके लिए जीवन भर बिता देना बैल ही का काम है या यों कहो, शंकर स्वामी के परम मित्र का धर्म है कठिन परिश्रम करके दूसरों के लिए अन्न वस्त्र उपजाना-कैसा ही बोझ उठाना हो, कसे ही शीत उष्ण बरषा सह के बन बीहड़ में जाना हो, कभी हिम्मत न हारना-मर जाने पर भी पृथ्वी सींचने को पुर, लोगों की पदरक्षा के लिए जूती, वस्त्राभरण धरने को संदूक, कठिन वस्तु जोड़ने को सरेस वृषभ ही से प्राप्त होता है । यदि हम भी ऐसे ही बन जाएं कि अपने दुख सुख की चिंता न करके संसार के उपकार में धैर्य के साथ श्रम करते रहें, जगत् के हितार्थ कहीं जाना हो, कुछ ही करना हो, कभी हिचिर मिचिर न करें, वह आचरण रकहो कि हमारे मरणानंतर भी