पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७

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जरा अब तो आंखें खोलिय] दिन भर का मूला रात को घर आवे तो उसे भूला नहीं कहते । बस अब बिगड़े प क्या बिगड़ेगी । लो जाने दो, मिल जाओ । कसम लो हमसे अगर यह भी कहें, "क्यों, हम न कहते थे ?' सुनते हो, यह कोई समझदार दोनदार बाचा के धनी नहीं हैं जो मुंह पर तुम्हारी हां में हां मिला देते हैं । यकीन रखो कि वे जिस्को कुछ तरहदार पाते हैं ऐसे ही बन जाते हैं। उन लोगों के यारों का कुछ ठिकाना नहीं है । वे निरे "पंडित सोई जो गाल बजावा" में से हैं। वह तुम्हारे सच्चे "अप्रियस्य पथ्यस्ववक्ता" हमी निकलेंगे। इससे यही बिहतर है कि हमारे हो रहो। हमें अधिक न कढ़ाओ। इसो में परमेश्वर तुम्हारा भला करेगा। इघर देखो, तुमको हिंदू समझ के कहता हूँ- "सर प क्यों ले है बरहमन का खू, ए शाहे हुम्न ए बुते बेपीर । बन न और गजेबे आलपगोर । तू जो दिल को मेरे दुखाता है, हैफ है घर खुदा का ढाता है" । बस, 'समझने मे था हमें सरोकार, अब, मान न मान तू है मुखतार" । खैर खिसियाते हो तो जाते हैं, यहां क्या है “फकी राना आए, सदा कर चले । मियां खुश रहो हम दुवा कर चले ।" खं० १, मं० ७ ( १५ सितम्बर सन् १८८३ ई० ) जरा अब तो आंखें खोलियै जातीय भंडार प्यारे पाठक ! क्या इसमें भी कुछ मंदेह है कि रपये बिना संसार का कोई काम नहीं चलता ? तभी तो लोग इसके लिये महा महा परिश्रम करते हैं, भाति भांति के असह्य कष्ट उठाते हैं, ठौर कुठौर दीनता दिखलाते हैं, नाना प्रकार के छल कपट करते हैं, अपनी प्रतिष्ठा, लना, धर्म कम, सभी खो बैठते हैं। कहाँ तक कहें कि प्राण तक झोंक देते हैं । क्यों न हो, यह चीज ही ऐसी है। हमारे पूर्वजों ने मनुष्य जन्म रूपो वृक्ष के चार फल ठहराये हैं-अर्थ ( धन ),धर्म, काम ( स्त्री संबंधी सुख ) और मोक्ष । देखो इसमें सबसे पहिले अर्थ ही का नाम रखा है । 'सर्वेगुणा कांचनमाश्रयंति' 'द्रव्येषु सर्वेवशः' इत्यादि अनेक महात्माओं के बचन प्रायः छोटे बड़े सभी के मुख से प्रतिदिन सुनने में आते हैं। बाह क्या रुतबे हैं तलाये अल उस्लाम के'। जिसे देखो इन्हीं की गीत गाता है। सच पूछो तो संसार में ऐसी बहुत कम आपत्ति होंगी जो रुपये से दूर न हो सके। ऐसी बहुत बोड़ो क्या वरंच गिनती की होंगी जिनमें इसकी मावश्यकता नहीं पड़ती। मैं इसके गुण अधिक लिख के कागज नहीं भरना चाहता।