पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-पावली हमारे किए हुए कामों तथा लिखे हुए वचनों से पृथ्वी के लोगों के हृदय में प्रेमबह से सिंचित हों, लोग स्वदेशोन्नति के पपावलंबन में सहारा पार्व, देशभाई अपनी बया रूपी पूंजी का आधार बनावें तथा पाषाण सहश चित्त बाले भी आपस का मेल सीखें, बस तभी हम विश्वनाथ को प्यारे होंगे । तभी वह प्रेमदेव हृदय में आल होगा । जिसे यह सब बात स्वीकृत हैं उसे शिवदर्शन दुरलम नहीं है। पचपि शिवमंदिर में गणेश, सूर्य, भैरबादि की प्रतिमा भी कही २ देख पड़ती हैं पर उनके मुख्य पार्षद यही है। दूसरे देवताओं के मंदिर अलग भी बनते हैं अतः उनका वर्णन यहाँ पर विशेष रूप से आव- श्यक नहीं है, इससे हमारे पाठकों को शिवदर्शन की ओर झुकना चाहिए। पर यदि केवल बुद्धि के नेत्रों से देखिएगा तो पत्थर देखिएगा। हां, यदि प्रेम की आंखें हों तो उस अप्रतिम को प्रतिमा तुम्हारे आगे विद्यमान है ! शिवमूर्ति-इसको प्रेम लगा के देखिए, यह हमारे प्रेमदेव भगवान भूतनाथ सब प्रकार से अकथ्य अप्रतक्यं एवं अचित्य हैं तो भी भक्तजन अपनी रुचि के अनुसार उनका रूप, गुण, स्वभाव कल्पित कर लेते हैं। उनकी सभी बातें सत्य हैं अतः उनके विषय में जो कुछ कहा जाय सब सत्य हैं। मनुष्य की भांति वे नाड़ी आदि बंधन से बद्ध नहीं हैं, इससे हम उन्हें निराकार कह सकते हैं और प्रेमचक्षु से अपने मनोमन्दिर में दर्शन करके साकार भी कह सकते हैं। उनका यथातथ्य वर्णन कोई नहीं कर सकता तो भी जितना जो कुछ अभी तक कहा गया है और आगे के मननशील कहेंगे वह सब शास्त्रार्थ के आगे निरी बकबक है और विश्वास के आगे मनः शांतिकारक सत्य है । महात्मा कबीर ने इस विषय में सच कहा है कि जैसे कई अंधों के आगे हाथी आवे और कोई उसका नाम बता दे तो सब उसे रटोलेंगे-यह तो सम्भव ही नहीं है कि मनुष्य के बालक की भांति उसे गोद में ले सब जने उसके सब अवयव का ठीक २ बोध कर लें। एक २ जन केवल एक २ अंग टटोल सकता है और दांत टटोलने वाला हायी को खूटी के समान, कान छूने वाला सूप के सदृश, पांव स्पर्श करने वाला खम्भे की नाई कहेगा। यद्यपि हाथी न खूटे के समान है न खम्भे के समान पर कहने वाले की बात झूठ भी नहीं है। उसने भली भांति मिश्चय किया है और वास्तव में हाथी का एक २ अंग वैसा ही है भी। ईश्वर के विषय में मानवी बुद्धि को भी ठीक यही दशा है। हम पूरा पूरा वर्णन कर लें तो वुह अनंत कैसे ? और यदि निरा अनंत मान के हम अपने मन वचन को उनकी ओर से फेर लें तो हम आस्तिक कैसे ? सिद्धांत यह कि हमारी बुद्धि जहां तक है वहाँ तक उनकी स्तुति प्रार्थना, ध्यान उपासना कर सकते हैं और इसी से हम शांति लाभ करेंगे। उनके साथ जिस प्रकार से जितना संबंध रख सके उतना ही हमारे मन, बुद्धि, आत्मा संसार, परमार्थ के लिए मंगल है। जो लोग केवल जगत के दिखाने तथा सामाजिक नियम निमाने को इस विषय में कुछ करते हैं वे व्यर्थ समय न बिता, जितनी देर पूजा पाठ करते हैं उतनी देर कमाने खाने, पढ़ने, गुनने में रहें तो उत्तम हैं और जो केवल शास्त्रार्थी आस्तिक हैं वे भी व्यथं ईश्वर को पिता बना के माता को