पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४४८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली पारदेश्वर (पारे की मूर्ति ) यह प्रकाश करते हैं कि परमेश्वर हमारे पुष्टिकारक हैं- सुगंधम्पुष्टिवदनं' वेद वाक्य है। यदि मूर्ति बनाने बनबाने की सामर्थ्य न हो तो पृथिवी जल आदि अष्टमूर्ति बनी बनाई विद्यमान है । वास्तविक प्रेममूर्ति मन के मंदिर में है ही पर तो यह दृश्य मूर्तियां भी निरर्थक नहीं हैं। इनके कल्पना करने वालों की विद्या और बुद्धि प्रतिमानिंदकों से अधिक ही थी। मूर्तियों के रंग भी यद्यपि अनेक होते हैं पर मुख्य रंग तीन ही हैं १-श्वेत, २-रक्त, ३-श्याम । और सब इन्ही का विकार है इससे इन्ही का वर्णन आवश्यक है। उसमें- पहिले श्वेत रंग की प्रतिमा से यह सूचित होता है कि परमेश्वर शुद्ध एवं स्वच्छ है-'शुद्धमपापविद्धं' । उसकी किसी बात में किसी का कुछ मेल नहीं है । वुह 'वहेदहलाशरीक' है पर सभी उसके आश्रित हैं। जैसे उजला रंग सब रंगों का आश्रय है वैसे ही सबका आश्रय परब्रह्म है । सरसाश्च भावाश्च तरंगा इव वारिधी । उत्पद्यते विलीयंते यत्र सः प्रेमसंज्ञकः'। वह त्रिगुणातीत तो हई पर त्रिगुणालय भी उसके बिना कोई नहीं है औ यदि उसे सतोगुणमय भी कहें ( सतोगुण श्वेत है ) तो कोई वेअदबी नहीं है। दूसरा लाल रंग रजोगुण का द्योतक है । यह कौन कह सकता है कि यह संसार भर का ऐश्वयं किसी अन्य का है। कविता के आचार्यों ने अनुराग का भी अरुणवरण वर्णन किया है। फिर अनुरागदेव का रंग और क्या होगा? काले रंग का तात्पर्य सभी सोच सकते हैं कि सबसे पक्का यही है । इस पर दूसरा रंग नही चलता। यों ही प्रेमदेव सबसे अधिक पक्के हैं। उन पर दूसरे का रंग क्या जमेगा ? इसके सिवा दृश्यमान जगत् के प्रदर्शक नेत्र हैं। उनकी पुतली काली होती है। भीतर का प्रकाशक प्रज्ञान है। उसकी प्रकाशिनी विद्या है जिसकी सारी पुस्तके काळी ही स्याही से लिखी जाती हैं। फिर कहिए जिसे भीतर बाहर का प्रकाश है, जो प्रेमियों को आँख की पुतली से भी प्यारा है, जो अमंत विद्यामय है-'सर्वेवेदायत्रचकीभवंति'-उसका और कौन रंग मानें ? हमारे रसिक पाठक जानते हैं किसी सुंदर व्यक्ति के नयन में काजल और गोरे गालों पर तिल कैसा भला लगता है कि कवियों की पूरी शक्ति और रसज्ञों का सर्वस्व एक बार उस छबि पर निछावर हो जाता है। फिर कहिए सर्वशोभागय परम संदर का कौन रंग कल्पना कीजिएगा ? समस्त शरीर में सर्वोपरि शिर है। उस पर केश कैसे होते हैं ? फिर सर्वोत्कृष्ट महेश्वर का और क्या रंग होगा? यदि कोई लाखों योजन का बहुत बड़ा मैदान हो और रात को उसका अंत लिया चाहो तो सौ दो सौ दीपक जलाओगे। पर क्या उनमें उस स्थल का छोर देख लोगे ? नहीं, जहाँ तक दीपों का प्रकाश है वहीं तक कुछ सूझेगा, फिर बस 'तमसा गूढ़मग्रे'। ऐसे ही हमारे बड़े २ महर्षियों को बुद्धि जिसका भेद नहीं प्रकाश कर सकती उसे प्रकाशवत म मानें तो क्या माने? श्री रामचंद्र कृष्णचंद्रादि को यदि अंगरेजी जमाने वाले ईश्वर