पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४७७

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शैशव सर्वस्व]
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शैव सर्वस्व चाहिए।' इस से बहुतेरी बुराइयां छुटी रहती हैं। इसी भांति रुद्राक्ष एवं बड़े २ बाल भी स्वास्थ्य के लिए उपयोगी हैं पर यह विषय अन्य है अतः केवल वर्णनीय विषय लिखा जाता है। शिवमूर्ति के गले में विष की श्यामता का चिह्न होता है। जब समुद्र के मथने के समय महा तीक्ष्ण हलाहल निकला और कोई उसको मार सह न सका तब आप उसे पान कर गए। तमो से गरलकंठ कहलाते हैं । इप्स पर श्री पुष्पदंताचार्य ने कितना अच्छा सिद्धांत निकाला है कि 'विकारोपिश्लाघ्यो भुवन भयभंग व्यसनिनः । यहां हम शिव- भक्तों से प्रश्न करेंगे कि जब हमारे प्रभु ने जगत् की रक्षा के हेतु विष तक पी लिया है तो हमें निज देश के हितार्थ या कुछ भी कष्ट अथवा हानि न सहना चाहिए ? उन के एक हाथ में त्रिशूल है अर्थात् दैहिक दैविक भौतिक दुःख उनकी मुट्ठी में है। फिर उनके भक्त संसार से क्यों न निर्भय रहें। उस सर्व शक्तिमान के पंजे से छूटेंगे तब हम पर चोट करेंगे । भला यह कब संभव है ? हमारा प्रमु हमारी रक्षा के अर्थ सदा शत्र धारण किए रहता है फिर हम क्यों डरें। हमारे विश्वनाथ त्रिशूल प्रहारक हैं अतः हमें कोई निष्कारण सतावैगा तो वुह कहां बच के जायगा? हमारा या यों कहो कि संसार के शुभचिंतकों का शत्रु पृथिवी स्वर्ग पाताल कही न बचेगा। भगवान का नाम हो त्रिपुरारि है अर्थात् त्रैलोक्य के असुर प्रकृति वालों का शत्रु ! हां, प्रिय शव गण ! यदि तुममें काई भी आसुरी प्रकृति हो, स्वार्थ के आगे देश की चिता न हो, देशो भाइयों से द्वेष हो, आलस्य हो, दंभ हो, पर संताप हो तो डरो सृष्टि संहारक के त्रिशूल से ! और यदि सरलता के साथ उन के चरण और सदाचरण में श्रद्धा है तो समस्त सूल को वे स्वयं प्रहार कर डालेंगे । कभी २ कालचक्र की गति से सच्चे शव को भी रोग वियो. गादि शूल दुव देते हैं पर उसे संसारी लोगों की भांति कष्ट नहीं होता। क्योंकि निश्चय रहता है कि यह प्रेमपात्र का चोंचला मात्र है, न जाने किस उमंग में आके त्रिशूल दिखला दिया है पर अब हम चोट कदापि न करेंगे। दूसरे हाथ में डमरू है पंडित लोग जानते हैं कि व्याकरणादि कई विद्याओं के अइ- उणऋलकादि मूल सूत्र इसी डमरू के शब्द से निकले हैं। इस बात का इशारा है कि सब विद्या उनकी मूठी में हैं । पर हमारी समझ में एक बात आती है कि यदि वे केवल त्रिशूलधारी ही होते तो हम निर्बलों को केवल उनका भय होता इसीलिए एक बाजा भी पास रखते हैं जिप्तमें हमें निश्चय रहे कि निरे न्याया, निरे दुष्टदलन, निरे युवप्रिय हो नही है वरंच अपने लोगों के लिए गानरसिक भी है। मनुष्य की मनोवृत्ति गाने बजाने की ओर आप ही खिंच जाती है। फिर भला जिस की ओर चित्त लगाना हमें परमावश्यक है वुह प्रभु हमारे चित्त को अपनी ओर खीचने के अर्थ गानप्रिय क्यों न हो ! सैकड़ों बार देखा गया है कि कभी २ किसी कारण के बिना भी हमारा मन उन के निकट जा रहता है इसका कारण यही है कि उन का रूप गुण स्वभाव हृदयग्राही है। धन्य है उस पुरुषरत्न का जीवन जिस के मन की आँखों में सदा उन