पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४८१

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शैशव सर्वस्व]
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शैव सर्वस्व ] ४५७ सकते हैं, यों ही कहों गाल बजाया करें'। प्रसिद्ध है कि ऐसा करने से भवानीपति बडे प्रसन्न होते हैं। भला सच्ची बात और युक्ति के साथ कही जायगी तो कोन सहृदय न प्रमन्न होगा ? फिर वे तो सहृदय समाज के आदि देव (गणेश जी ) के भी पिता हैं। ___ यद्यपि हमारा कोई मत नहीं है, क्योकि हमारे परम गुरू श्री हरिश्रन्द्र ने हमे यह सिम्खलाया है कि 'मत का अर्थ है नहीं'। पर जब हम अपने पश्चिमोत्तर देश की ओर देखते हैं तो एक बडे भारी समूह को शैव ही पाते हैं। हमारे ब्राह्मण भाई, विशेषतः कान्यकुब्ज, तिम्पर भी षटकुलस्थ कदाचित् मो मे नितानबे इसी ओर हैं । इधर रहने वाले गौड सारस्वत भी तीन भाग से अधिक शैव ही है । क्षत्रियो राजपूत सौ मे पांच से अधिक दूसरे मत के न होगे ! खत्री भी फी मैकडा दो ही चार हो तो हो । वैश्य मे हमारे ओमर दोसरो की भी यही दशा है। हां, अग्रवाल थोडे होगे । कायस्थ तो सौ मे क्या सहस्र मे दो चार होगे जो शिषोपामक न हो! इस से हमारा यह कहना कदापि झूठ न होगा कि हमारे यहाँ नीन भाग मे अधिक इसी ढरे मे चल रहे हैं। वेद मे यदि कुछ ऋचा विष्णु इत्यादि नामो से स्तवन करती हैं तो बहुत सी ऋचाएं हमारे गेला बाबा हो की गीत गाती हैं-'नमः शंभवायच मनो- भवायच नमः शकरायच भस्करायच नम. शिवायच शिवेनगयच'। ऐसा दूसरे नामो से भरा हुवा मंत्र क्दादित् कोई ही हो। इस के अतिरिक्त इस मार्ग मे अकृत्रिमता बहुत है। बड़े कट्टर बना चाहो तो नहा के तं न ऊंगली भस्म मे डुबो के माथे पर रग्ड लिया करो। न जी चाहे तो यह भी न मही । पूजा भी केवल लोटा भर पानी तक से हो सकती है। जिस मे निरी अकृत्रिमता, धोती, नेती, कंठी, माला, कुछ न देखिए उसे जान जाइए शैव है। हमारे बहुत से मित्र आर्यसमाजी हैं, बहुतेरे अंगरेजी हंग के हैं, बहुतेरे हमारे ऐसे हैं, वे भी कमी लगावेगे तो त्रिपड ही लगावेंगे। माला या कंठा रुद्राक्ष ही की पहिलेंगे । फिर हमारी तबीयत क्यो न इस सीधी चाल पर झुके ? क्यो न हमारे मुह से बेतहाशा निकले-बु बु बु बु बु बु बु बु बोम महादेव कैलाशपती, टम् टन टन्, नेति नेति नेति !