पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४६४
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४६४ [प्रतापनारायण-ग्रंथावली पर आ पड़ती है उस समय कोई लाखों में एक ही ऐसा भाग्यवान होता है जो विद्या प्राप्ति का अवसर पा सके, नहीं तो दिन रात घर बाहर के धंधों से अवकाश कहाँ इसी से बुद्धिमानों का सिद्धांत है कि जिस ने बाल्यावस्था में विद्या न पड़ी, इस सुअवसर को खेल कूद में बिता दिया, उस ने अपना जीवन अपने हाथों नष्ट कर दिया पर हमें इस बात से प्रसन्नता है कि हमारी इस पुस्तक के पाठक ऐसे नहीं हैं। हाँ, यदि पढ़ने लिखने में अब से विशेष मन लगावें और अधिक परिश्रम करें तो और भी उत्तम है। इसका फल प्रत्यक्ष देखने में आवैगा कि केवल शिक्षक और माता पिता प्रसन्न ही नहीं होते तथा सहपाठियों में प्रतिष्ठा ही नहीं मिलती बरंच अपना हृदय भी एक प्रकार का अकथनीय स्वादु पाता है। किंतु इस के साप यह भी समझे रहना चाहिए कि केवल पढ़ने ही से काम न चलेगा । उस के साथ गुनने की भी आवश्यकता है। नहीं तो उसी कहानी की सी गति होगी कि एक महाशय ने ज्योतिष बहुत दिन पढ़ी यो किंतु बुद्धि से काम लेना न जानते थे। उन्हें किसी राजा ने बुलाया और अपनी मेठी में अंगूठी ले के पूछा कि बताइए तो हमारे हाथ में क्या है ? आप ने गणित कर के कहा कि कोई गोल २ वस्तु है और उस के मध्य में छिद्र है तथा किसी धातु एवं पाषाण से निर्मित हुई है। राजा ने यह सुन विस्मित हो के कहा. निस्संदेह तुम्हारा परिश्रम प्रशंसनीय है। लक्षण सब मिलते हैं। भला यह तो कहिए कि वह है क्या पदार्थ ? तो विद्वान् महापुरुष ने उत्तर दिया-चक्की का पेहान है, और क्या है !' इस कथा का यह अभिप्राय है कि जो लोग परीक्षा में उत्तीर्ण होने तथा बड़ी २ वृत्ति अथवा पदवी पाने के लाभच से बहुत सी पोथियाँ रट डालते हैं पर उन में लिखी हुई बातों को भले प्रकार काम में लाने तथा दूसरों को अच्छी रीति से समझा सकने का प्रयत्न नही करते वे विद्या के पूर्ण फल से बंचित रहते हैं। इसी से प्राचीनों का वचन है कि एक मन विद्या के साथ दस मन बुद्धि चाहिए । वर्षात् पढ़ो चाहे पोड़ा पर गुनी बहत । जो कुछ पढ़ो उस में भलीभांति वृद्धि दौड़ा के एवं दूसरे ननुभवशोलों के साथ संलाप कर उस के विषय को यहाँ तक हृदयस्थ तथा अम्बस्त कर को कि किसी प्रकार की त्रुटि का संदेह न रहने पावे । बहुतेरे लोग ऐसे हैं कि पढ़े लिखे तो इतना है कि उन्हें किताबों का कीड़ा कहना चाहिए पर अभ्याप में इतने कच्चे हैं कि अपनी जानी हुई बातें दूसरों के बागे प्रकाश ही नहीं कर सकते, अथवा दूसरों को दिन रात समझाया करते है किंतु अपने माचरण द्वारा दिखला तनिक भी नहीं सकते। ऐसे लोग उस योदा के समान हैं जो हाथ में उत्तम शन्न लिए हुए है, पर में उसका चलाना जानता है, न चलाने की सामर्थ्य रखता है। सच पूछो तो ऐसे लोगों से विद्या को विडंबना होती है, और ऐसे ही लोगों को देख कर साधारण लोगों ने यह कहावत प्रसिद्ध कर की है कि 'बहुत पड़ने से मनुष्य पागल हो जाता है !' नहीं तो पढ़ लिख कर भी जिसने अपनी पाल चलन न सुधारी, अपनी चतुरता और अनुभवशीलता से दूसरों के लिये उदाहरण बनने का उद्योग न किया, उसने पढ़ के क्या फल पाया !