पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४८९

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सुचाल-शिक्षा]
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१६५ सुचाम-शिक्षा ] इसी से कहा गया है कि श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात् करण के बिना किसी विद्या की सिद्धि नहीं होती । अतः जो कुछ भी सिखलाने वाले सिखा उसे भली भांति मन लगा के पहिले सुनो फिर अपनी बुद्धि से उस का विचार करो। विचार में जो कोई भ्रम उत्पन्न हो तो अपनी तथा दूसरे श्रेष्ठ पुरुषों की सम्मति से उसे दूर करो और फिर प्रत्येक निश्चित विषय पर पूरा अभ्यास करते रहो। इसी को पढ़ना और गुनमा कहते हैं। और जो बाखक पढ़ने और गुनने में उत्साह रखते हैं वही सुख एवं सुयाह देने वाली शिक्षाओं के सुयोग्य पात्र हैं अथच युवावस्था में वही सत्पुरुष वा पुरुषरत्न कहे जाने के योग्य हो सकते हैं। दूसरा पाठ नित्य कर्म सबेरे उठ कर रात को सो रहने के समय तक प्रायः जो काम प्रतिदिन सब को करने पड़ते हैं वे नित्य कर्म कहलाते हैं। सोना, जागना, उठना, बैठना, खाना, पाना, चलना और फिरना इत्यादि नित्यकर्म हैं। इन्हें सभी लोग सदा ही करते रहते हैं और देखते हैं कि इन के बनने बिगड़ने से विशेष लाभ अपवा हानि भी बहुधा नहीं हानो, इस से साधारण लोग इन पर विशेष ध्यान नहीं रखते, क्योंकि वे इन्हें साधारण वा छोटे २ काम समझते हैं । पर विचार कर देखिए तो हमारे जीवन का अधिकांश इन्ही पर निर्भर है। बड़े २ काम तो कभी ही कभी किसी ही किसी को करने पड़ते हैं। अतः इन नित्य के कामों को तुच्छ समझ कर इनकी उपेक्षा करना बुद्धिमानी से दूर है। अनुभवशील विद्वानों का सिद्धांत है कि जो पुरुष छोटे २ साधारण २ कार्यो को सावधानी और उत्तमता से करते रहने का अभ्यास रखता है वही काम पड़ने पर बड़े २ कामों को उत्तम रीति से निबाह सकता है। नहीं तो नित्व के बाहार विहारादि का नियम ठीक न रहने से शरीर का बल घट जाता है, काम करने का पम्पास जाता रहता है और बुद्धि को तीव्रता का ह्रास हो जाता है। इसी से जब कोई नया और कठिन काम आ पड़ता है तो वो ऐसा घबराने लगता है मानो किसी ने सिर पर पहाड़ ला के रख दिया । एवं ऐसी दशा में यदि ज्यों त्यों कर पूरा भी हो गया तो उत्साह के साथ होना संभव नही, क्योंकि हमारा जीवन सृष्टिकर्ता ने एक भवन के समान बनाया है । जैसे भवन के सुंदर २ बड़े २ कोठे बरोठे आदि छोटी २ इंट अथवा पत्थर इत्यादि से बनते हैं वैसे ही हमारे जीवन के बड़े २ कार्य इन्ही नित्य के छोटे २ कामों के मध्य पायों कहो इन्ही के द्वारा संघटित होते हैं । यदि ईंट पत्थर लकड़ो आदि दृढ़ एवं ३.