पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४९३

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सुचाल-शिक्षा]
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सुचाल-शिक्षा ] हमें नित्य अथवा बहुधा दूसरों के साथ करने पड़ते हैं। उन का नियम भी प्रायः समी पढ़ने लिखने वाले तथा पढ़े लिखे लोगों की संगति में रहने वाले जानते हैं, पर केवल जानने ही से कुछ नहीं होता, इसलिए हमारे पाठकों को उन का पूर्ण अभ्यास रखना योग्य है। इसी से हम यहाँ पर लिखते हैं और आशा रखते हैं कि वाचकवृंद अपने बर्ताव में लावेंगे और कभी दैवयोग से चूक पड़ जाय तो आगे के लिए अधिक सावधानी रखेंगे । वे बातें ये हैं अर्थात् अपने वेष और वाणी को ऐसा बनाए रहना चाहिए जिस से किसी को अश्रद्धा न उत्पन्न हो जाय । घर के भीतर वा जिन लोगों से सब प्रकार घरेऊ सम्बन्ध हैं उन के सामने फटे पुराने वा कुछ मैले कपड़े पहिने रहने में उतनी हानि नहीं है, पर घी तेल पसोना अथवा बरसाती सील की गंध उन में भी न होनी चाहिए, नहीं तो अपना और मिलने वाले का मस्तिष्क क्लेश पावेगा। ऐसे अवसर पर हस्तपदादि का खुला रहना भी दूषित नहीं है, पर यदि कहीं पर कोई घृणाकारक घाव या फोड़ा इत्यादि हो, तो आत्मीयों के सम्मुख भी उन्हें छिपाए हो रहना चाहिए । हां. घर से बाहर थोड़ो दूर भी जाना हो तो शिर, पाँव, पेट, पीठ सब स्वच्छ वस्त्रों से आच्छादित रखना उचित है, जिस में ऐसा कहने का अवसर न पड़े कि कपड़े अच्छे नहीं हैं फिर अमुक के यहां क्यों कर जायें ? नहीं ! जब बाहर निकलें तो सब कहीं जाने के योग्य वस्त्र रहने चाहिए। यहाँ यह भी स्मरण रखना योग्य है कि वस्त्रों को अच्छाई केवल स्वच्छता और निज सामर्थ्य की अनुकूलता पर निर्भर है, न कि बहुमूल्यता पर । जाति की चाल और घर की दशा जैसी हो वैसे ही कपड़े प्रतिष्ठा के लिए बस हैं अधिक दाम यदि भोजन में लगाए जाय तो शरीर की पुष्टि होती है. किंतु वस्त्रों के लिए व्यर्थ किये जाये तो तुच्छता है । जब कि पिता माता भाई आदि साधारण कपड़े पहनते हैं तब हमारा बाबू बने फिरना व्यर्थ ही नही, बरंच लज्जास्पद है। हां, फटे और मैले तथा दुर्गधित वस्त्र न हों, बस । और इन के साथ ही छड़ी, छाता, जूता आदि का भी ध्यान रहे । शीतोष्ण वर्षा तथा अँधेरे उज्जाले में इन का भी काम पड़ता है। इसलिए सामर्थ्य के अनुकूल यह भी चाहिए । बरसते में अथवा कड़ी धूप में इन के बिना भी चल देना कष्टकारक और होमता प्रदर्शक है, इस से सावधानी के साथ रहना उचित है, किंतु गरमी सरदी आदि सहने का भी अभ्यास बना रहे तो अत्युत्तम है। इस के अतिरिक्त बोलचाल अयवा बर्ताव पर ध्यान रखना उचित है अर्थात् झूठी, कठोर, गर्वपूर्ण और लज्जा, घृणा तथा अमंगल प्रकाश करने वाली बातें कभी किसी के प्रति न निकालनी चाहिए। यहां तक कि जो लोग जाति और पद आदि में नीच हैं उन से भी तिरस्कारसूचनार्थ भी सज्जनता ही के साथ बोलना योग्य है । विशेषतः जो अवस्था, प्रतिष्ठा, विद्या, अनुभव. शीलता, जाति अथच पदवी में अपने से श्रेष्ठ हों, उन के सम्मुख बहुत सम्भाल कर बातचीत करना चाहिए । नम्रता, स्नेह भोर आदर से भरी हुई बातें मधुर और गंभीर स्वर से मुख पर लानी चाहिए। यदि उन का कोई वाक्य अपने विचार के विरुद्ध हो तो भी हठ न कर के उन की श्रेष्ठा रखे हुए जिज्ञासु की भांति अपना