पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४९४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रापनारायण-ग्रंथावली अभिमत प्रकट करना योग्य है । वे रोष प्रकाश करें तथापि शिष्टता ही से उत्तर देना पाहिए और कोई हास्य की बात कर समता द्योतन करें तथापि उत्तर देना, हास्य तथा बराबरी दिखलाना अनुचित है। हाँ, मित्रों के साथ बराबरो और परिहास करना दूषणीय नहीं है, पर वहीं तक कि उन को और अपनी योग्यता बनी रहे तथा उन का कोई सच्चा दोष न प्रकाशित हो एवं उन्हें उत्तर देने में संकोच वा लज्जा न लगे । इस के अतिरिक्त साधारण परिचय वालों से भी उपर्युक्त ही रीति से वार्तालाप करना चाहिए किंतु इतना विचार और भी रखना योग्य है कि अपना विद्वत्ता दिखलाने को ऐसे शब्द न बोलने चाहिए जो वे समझ न सकें और ऐसी बातें भी जिह्वा पर न लानी चाहिए जिन से किसी प्रकार की अपनी वा उन की हीनता प्रगट हो वा खुशामद पाई जाय । यह नियम तो दो जनों के बीच में बोलने बतलाने के हैं, पर जब सौ दो सौ मनुष्यों के मध्य बोलना पड़े तो इतनी विशेषता चाहिए कि स्वर इतना ऊँचा अवश्य रहे कि सब कोई भलीभांति सुन ले और बात वही निकले जिस को सिद्धकर देने की पूरी सामर्थ्य हो तथा जिसका प्रभाव आधे से अधिक लोगों के जी पर हो सके। यदि इतनी क्षमता न हो, तो चुपचाप बैठे रहना वा धर्म और राजा प्रजा का विरोध न होता हो, तो अधिकतर लोगों की हां में ही मिला देना ही बहुत है । इन दोनों अवसरों पर किसी की बात काट के बोल उठना वा प्रयोजन से अधिक बोलना भी अनुचित है। बस, अब रहा बर्ताव का ढंग, वह यों है कि सब से अधिक प्रीति और निश्छलता तो अपने कुटुम्बियों के साथ रखनी चाहिए, इन के हित में सदा सब प्रकार तन मन धन से उद्यत रहना चाहिए, इन के सामने सारे संसार का संकोच छोड़ देना उचित है तथा नीतिमान राजा, सदाचारी गुरु और निष्कपट मित्रों को भी इन्हीं के समान जानना योग्य है। इन से उत्तर के सहवासियों और सजातियों से स्नेह कर्तव्य है। इस के उपरांत स्वदेशियों और फिर यावज्जगत का भला मनाना चाहिए । यों बड़ी २ बातें बनाना और बात है पर सचमुच का बर्ताव इसो रीति से हो सकता है, इसलिए अभ्यास में भी यही ढंग अच्छा है। बस, इस पर दृष्टि रक्खे हुए जो कुछ कीजिए, इस प्रकार कीजिए, किसो आत्मीय वा परिचित व्यक्ति पर उस कार्य का भार मत रखिए जो अपने किए हो सकता हो। किसी से इतना हेल मेल न बढ़ाइए जो सदा न निभ सके। किसी को उस बातों के पूछने में हठ न कीजिए जिन्हें वह छिपाया चाहता हो, किसी के साथ कोई उपकार कीजिए तो पलटा वा प्रशसा पाने की मनसा से न कीजिए। किसी को अयोग्य स्थान पर बैठे वा खड़े हए देखिए तो उस समय मुंह फेर लीजिए। किसी में कोई दोष देखिए तो घृणा न कीजिए वरंच प्रीतिपूर्वक सुमार्ग में लाने का यत्न कीजिए। किसी का तब तक विश्वास वा अविश्वास न कर लोजिए जब तक दश पांच बेर परीक्षा न मिल जाय । किसी की निंदा सुन कर प्रसन्न न हूजिए, क्योंकि इस का कोई प्रमाण नहीं है कि निंदक तुम्हें छोड़ देंगे। किसी का कोई लोक हितकारी काम करते देखिए तो उस की प्रार्थना के बिना भी यथासाध्य सहायता कीजिए। कोई अपने आवै तो उसे आदर ही से लीजिए