पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४९८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४७४ [ प्रतापनारायण ग्रंथावली जो कुछ होता है सब इन्ही मिनिटों, घंटों और दिनों के मध्य हुमा करता है । इसलिए इन्हें तुच्छ समझ कर व्यर्थ बिताना उस अनंत काल को तुच्छ समझना है जिसे प्राचीन बुद्धिमानों ने ईश्वर का रूप कहा है। जिसका आदि और अन्त कोई नहीं बतला सकता, जिसका स्वरूप केवल अनुमान का विषय है, जिससे अलग कभी कहीं कोई कुछ हो ही नहीं सकता ऐसे काल को ईश्वर अथवा उसके महोत्कृष्ट अंश के अतिरिक्त क्या कह सकते हैं ? और ऐसे उत्कृष्ट एवं अमूल्य पदार्थ को जिसने व्यर्थ मष्ट कर दिया उसे यदि निज जीवन का नष्ट करने वाला कहें तो क्या अत्युक्ति है ? जिम काल का आदि थच अन्त कोई निश्चित नहीं कर सकता, उ के अन्तर्गत हमारा जीवन है ही कितना ? बहुत जिएगे सव वर्ष जिए'गे, उसमें भी आधे के लगभग समय रात्रि के सोने में बीत जाएगा। रहे पचास वर्ष उनमें भी जन्मदिन से आठ दस वर्ष लडकपन रहता है, जिसमें खेलने खाने के अतिरिक्त न कुछ अपना हित हो सकता है न पराया। और उधर अस्सी पचासी वर्ष की अवस्था में बुढ़ापा आ घेरता है, जिसमें समझते बूझते चाहे जैसा हो, पर हस्तपदादि असमर्थता के कारण कर धर कुछ भी नहीं सकते । इस लेख से यदि मान ही लें कि सौ वर्ष अवश्य जिएगे ( यदि इसका निश्चय नही है ) और कभी रोग वियोग चिंता परवशतादि में ग्रस्त न होंगे, तो भी हमें केवल बीस पचीस वर्ष का ऐसा समय मिल सकता है जिसमें जीवन के सार्थक करने योग कोई उद्योग कर सकें । यदि इतने स्वल्प काल को हम दयामय परमात्मा का अमूल्य महाप्रसाद समझ के बड़े ही आदर, बड़े ही प्रयत्न, बड़ी ही सावधानी से काम न लावें तो हमारी गति ऐसे मूर्ख के समान होगी, जिसे भाग्यवश थोड़े से अमूल्य रत्नों के छोटे २ टुकड़े मिल जायं, जो देखने में छोटे पर दामों में लाखों करोड़ों को भी सस्ते हैं,और यदि दस बीस मिलाकर परस्पर जोड़ दिए जायं तो महामूल्यवान और परम दुर्लभ हो सकते हैं, किन्तु प्राप्त करने वाला उनकी बहुमूल्यता जान बूझकर भी एक २ दो २ करके इस विचार से फेंक दे कि ऐसा छोटा सा टुकड़ा जाता ही रहेगा तो क्या हानि होगी ! ऐसी बुद्धि वाले को सब लोग जान सकते हैं कि एक न एक दिन अवश्य दरिद्रता सतावेगी और अपने किए पर न रोना पड़ेगा, पर जो समय का उचित आदर नहीं करता उसकी दशा इस निर्बुद्धि से भी अधिक बुरी होनी संभव है। उसे अकेली दरिद्रता ही नहीं, बरंच दुःख, दुर्बदि, दुष्कर्म, दुर्दशा सभी सता सकते हैं। जो लोग समय के छोटे २ भागों का निरादर करके घंटों और पहरों.तक शतरंज, चौपड़ आदि व्यर्थ खेल, असमय शयन, मेरे तेरे निरर्थक प्रपंच वा इधर उधर की निष्प्रयोजन बातें किया करते हैं, अथवा छोटे २ आवश्यक कार्यों से जी चुगने लगते हैं और इसका फल यह होता है कि जहां कोई बड़ा काम आ पड़ा, वही शिर पर पहाड़ सा आ गिरता है । उसे विवश होकर करते भी हैं तो रो रो कर । ऐसे लोगों को उचित समय पर नहाने खाने सोने आदि का अवसर नहीं मिलता । शरीर वस्त्र गृहादि की स्वच्छता एवं निर्वाहोपयोगी वस्तुओं के प्रबन्ध करने का अवकाश नहीं मिलता। आवश्यक विषयों के सीखने सिखाने का अथच अपनी तथा गृहकुटुम्बादि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए दौड़ने धूपने का समय नहीं मिलता। बरंच यह