पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

२८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावलो है जिसका कुछ ओर ही छोर नहीं। हमारा प्रयोजन यह नहीं कि जातिकुलाभिमान सर्वथा अनुचित ही है। नहीं, यह होना अवश्यमेव चाहिये, पर रीति रीति से । इसमें संदेह नहीं कि हमारे पूर्वज रिषि लोग सर्वमान्य थे परंतु किन कारणों से ? विद्या, धर्म, सम, दम, आस्तिकता आदि सद्गुणों से । बस हमको भी उक्त गुणों को ग्रहण करना चाहिये क्योंकि हम भी उनके वंश में हैं। यदि पूर्व पुरुषों के बराबर न हो सके तो कुछ तो उनके ढंग की सो योग्यता प्राप्त करें। यह नहीं कि सीखे चाहे गायत्री तक न हो पर 'हम तिरवेदी आहिन'। रौरे त्रिवेदी नहीं चतुर्वेदी सही, पर इस झुरे झन्नाने से हानि कितनी होती है कि दसरे ब्राह्मण को कुछ लेखा ही नहीं लगात। भला तुम जिसे बिना कारण के तिरस्करणीय समझोगे उसका चित्त तुम्हारी ओर से कैसा हो जायगा? क्या सम्भव है कि मिथ्याभिमानी का कोई दृढ़तर हेतु के बिना हितकारी हो ? वही जो एक वेद भी पढ़ लेते वा कुछ कोई विद्या होती तो लोग बड़ी श्रद्धा से सेवा में खड़े रहते। पर किया क्या जाय, बहुतेरे बड़कुल महापुरुष कह बैठते हैं, 'हमारे बंस मा विद्या फलति ही नाहिनु' अथवा 'का सुवा भैना आहिन ?' तो इनसे कौन कहे कि विश्वामित्र महाराज आदिक महपि, जो हमारे वंश्चके शिरोमणि थे, उनको विद्या न फलती तो बड़े बड़े महाराज बड़े बड़े अवतार क्यों उनकी प्रतिष्ठा करते ? श्रीरामचंद्र मर्यादा पुरुषोतम ने क्या सुवा मैना से धनुर्वेद पड़ा था? इसी मिथ्याभिमान के कारण अनैक्य इस जाति में ऐसी हो गई कि एक भाई दूसरे भाई को तुच्छ समझता है। किसी ने सच कहा है 'वाणझो ब्राह्मणं दृष्ट्वा श्वानवत् धुर्घरायते'। यह तो कहाँ हो सकता कि मिशिर जी दुवे जी को कुछ मान्य समझें। ढूंडने से कुछ नातेदारी भी निकल आवे तो "होई, नाते का नात पनाते का ठ्यांगरन' कह के मुंह फेर लेंगे। कनवजियों में किसी ने न देखा होगा कि एक ही कुल के पचास घर भी एक मरे के दुख सुख में साथी हों। जहां सुनो यही सुनने में आवैगा कि 'आही तो भयाचार 4 आवाजाही छूटिग है।' जहां कान्यकुब्जों का अधिक वृन्द है उन गांवों में यह चाल है कि अपने से बड़ा नाऊ वारी भी हो तो उसे काका बाबा इत्यादि कहते हैं। इससे जान पड़ता है, आगे के पुरुष बड़े मिलनसार होते रहे हैं। पुगणों से भी सिद्ध है कि हमारे रिषीश्वरा की किसी राजा के यहां कुछ रोक टोक न थी । सबके घर का वास्ता था । पर हाय ! हम लोग सगे भाई से भी प्रेम नहीं रखते । जब हम नीच जाति वालों को देखते हैं कि किसी भाई से कुछ ऊंच नीच बन पड़ी तो पांच पंच उससे रोटी ले के फिर मिला लेते हैं । यह देख के बड़ी लबा एवं दुख होता है कि हाय, हमारे यहां कुछ पूंछ ही नहीं है । जो चाहो सो किया करो। कोई कुछ कहने वाला ही नहीं । और परमेश्वर न करे किसी का कोई ऐब खुल जाय तो वह इस जन्म अपनों से मिली नही सकता । पदि कोई कहे कि इस फुट का कारण निरधनता है तो हम कहते हैं निरधनता भी तो इसी मिथ्याभिमान ही से हुई है । कोई धन्धा करने कही तो कहेंगे