पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५००

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४७६ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली हितकारी काम होता ही रहे, और जो कुछ हो वह पूरे चाव के साथ हो । कार्य छोटा हो वा बड़ा पर उसकी पूर्ति में आलस्य वा उपेक्षा की छोट न पड़ने पावै, यह विचार प्रतिक्षण बना रहे कि इसे पूरा ही करके छोड़गे, और किसी प्रकार यह पूरा हो जाय तो समय से दूसरा काम निकले। बस, इस रीति से समय पर दृष्टि बनी रहे तो सभी कुछ बन सकता है। पांचवां पाठ अवकाश के कर्तव्य अवकाश उस समय को कहते हैं जिस में किसी ऐसे काम करने की आवश्यकता न रहती हो जिस के किए बिना किसी हानि को संभावना हो । जो लोग अपने कर्तव्यों को नियत समय पर मन लगा के कर लिया करते हैं, उन्हें थोड़ा बहुत अवकाश अवश्य मिल रहता है । नित्यकर्मों के अतिरिक्त बालकों के लिये पढ़ना लिखना, युवकों के हेतु कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवादि द्वारा धनोपार्जन और वृद्धों के निमित्त भगवत् भजन, धर्मचिंतन तथा गृहप्रबंधादि मुख्य कर्तव्य हैं। और इन में जितना अधिक २ काल व्यतीत किया जाय उतना ही उत्तम है । पर यह कदापि संभव नहीं है कि इनके कारण अवकाश न प्राप्त हो सके । जो लोग कहा करते हैं कि हमें अमुक कार्य के मारे छुट्टी नहः मिलतो उन्हें उचित है कि उस काम को थोड़ी सी हानि कह कर भी छुट्टी मिलने का यत्न करें, नहीं तो स्वास्थ्य में बाधा पड़ेगी और कार्यसिद्धि का फल अप्राप्य वा दुष्प्राप्य हो जायगा। दिन भर में यदि अनुमान तीन घंटे स्वच्छंदता के साथ यथेच्छित कृत्य करने को न मिले तो हम बड़े भारी विद्वान्, धनवान और प्रतिष्ठावान होने पर भी सचमुच के सुखी नहीं हो सकते । और यदि सुख की कल्पना कर भी लें तथापि हमारे जीवन से किसी ऐसे कार्य की आशा होनी कठिन है जो सहृदय समूह को दृष्टि में वस्तुतः प्रशंसा के योग्य हो। इसलिए किसी ऐसे काम को भय, संकोच अथवा लालच के कारण उठा लेना, जिस में अवकाश मिलना सचमुच कठिन हो, अपने साथ बैर बांधना है । सब आवश्यक कार्यों का उचित रीति से निर्वाह करते हुए भी जैसे बने वैसे अवकाश का समय अवश्य निकाल लेना चाहिए । और उसे ऐसे कामों में बिनाना चाहिए जिन के द्वारा शारीरिक, मानसिक वा आत्मिक उन्नति में सहारा मिले । बहुतेरे लोग जिस किसी काम को कुछ दिन करते रहते हैं उस में ऐसे लिप्त हो जाते हैं कि यदि किसो पर्व आदि के संयोगवश उस से कुछ काल के लिये छुट्टी पाते हैं तो विकल से बन जाते हैं । ऐसों के मुख से बहुधा सुनने में आता है कि क्या करें, कोई काम है न धंधा, दिन कटे तो कैसे कटे ? उनका यह कहना अनुचित नहीं है। जो पुरुष किसी काम धंधे के बिना दिन काटता है, वह अपने जीवन को ध्यर्थ करता है ।