पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
सुचाल-शिक्षा]
४७७
 

सुचाल-शिक्षा ] ४७७ परंतु इस में भी संदेह नहीं है कि करने पाले के लिये कामों की कमी नहीं है, अतएव एक काम के अभाव में उकता उठना अनुचित है। यह समय दूसरे कामों में व्यतीत करना चाहिए। किंतु समय बिताने को यह युक्ति भी अच्छी नहीं है कि कोई मादक वस्तु सेवन कर के आपे से बाहर वा जागते हुए सोते के समान बन बैठना अथवा हठपूर्वक नीद बुलाने के लिये पड़ रहना वा घृतादि निन्दित कर्मों में संलग्न होना इत्यादि । बहुत लोग ऐसे भी हैं जो इस प्रकार के कामों को जी से अच्छा नहीं समझते। केवल अवकास का काल काटने वा कोई काम काज न होने की दशा में मन बहलाने मात्र को इन का अवलम्बन करते हैं। पर उन्हें समझना चाहिए कि संसार में जब कि मनबहलाव के सैकड़ों हितकर उपाय विद्यमान हैं, तब ऐसे कामों में समय बिताना वृषा है जिन्हें न कोई बुद्धिमान अच्छा समझता है न अपनी ही बुद्धि रुचिकारक मानती है । ऐसा करना तो अवकाश के समय को इतना तुच्छ समझना है कि हठ से भाड़ में झोंके बिना मन की तृप्ति ही संभव नहीं। अथवा मन को इतना अकर्मण् मान लेना है कि जिन थोड़े से कामों का उसे अभ्यास पड़ रहा है उन के बिना उसे कहीं आश्रय ही नहीं है । इसी से उस को विवशतः कुआं खाता ढूंढना पड़ता है । पर विचार कर देखिए तो ऐसी समझ निरी नासमझी है। वास्तव मे अवकाश का समय हमारे उचित मनोविनोद का एकमात्र हेतु एवं भविष्यत उन्नति के लिये अद्वितीय मार्ग है, अथच मन हमारा परम सहायक है और इस सहायक का स्वभाव यह है कि जिधर लगा दें उधर ही लग जाने में प्रसन्न रहता है। फिर भी यदि हम अवकाश और मन से उत्तम रीति को सहायता न प्राप्त करें, तो हमारी बड़ी मूल है। इसलिए हमें उक्ति है कि जब काम काज से छुट्टी पाया करें तब पहिले तो निर्वाह करने के लिए कर्तव्य कर्मों के निस अंश में कोई त्रुटि हो उसे दूर करने प्रयत्न किया करें। पठन-पाठन की पुस्तकों मे से जिस पुस्तक के जिस भाग को पूर्ण रूप से न समझ व समझा सकते हों, धनो- पार्जन में जिस किसी बातको पूर्ण विज्ञता न रखते हों, अथवा गृह प्रबन्धादि के जिस विषय में न्यूनता देख पड़ती हो उसे पूरा करने में तन मन से उद्योग करें। इस में चित्त को एक प्रकार की उलझन जान पड़ेगी पर आगे के लिए बड़ी सुविधा हो जाएगी। कोई सभी बातों में कच्चा नहीं हआ करता। इस से जहां और सब काम किए जाते हैं वहां इतने छोटे से विषय को भी अरुचिकर समझ के छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से जिस कार्य के जिस अंश में आज अड़चल सी देख पड़ती है उस में थोड़े ही दिनों के पीछे थोड़े ही परिश्रम से प्रखरता प्राप्त हो जाएगी और आवश्यक कर्तव्य का बन्धन एक प्रकार का मन बहलाव जान पड़ेगा। इस के अनन्तर यदि घर भरापूरा हो अथवा सामर्थ्यवानों के साथ सम्बन्ध हो तो अश्वारोहण, शस्त्रसंचालन तथा आखेट इत्यादि भी अवकाश के कर्तव्य हैं । इन के द्वारा शरीर और मन दोनों दृढ़ होते हैं पर यह सब को प्राप्य नहीं है अतः जिन्हें इन की प्राप्ति कठिन हो उन्हें उदास न होना चाहिये । यह नियम केवल इसी बात के लिए नही है। जिसे जो वस्तु प्राप्त हो उसी को उचित