पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५०४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४८. [ प्रतापनारायण-प्रथावली इन तीनों युक्तियों के उलट फेर से अर्थात् एक से उच्चाटन उपजे तो दूसरी का अवलंबन करने से चित्त को कौतुकप्रिय और प्रसन्न होने तथा प्रत्येक समय में कायंलग्न रहने का अभ्यास पड़ जायगा, क्योंकि ये तीनों बातें स्वभावतः मानंद और सहृदयता का उत्तेजन करने वाली हैं । हम नहीं जापते, वे कैसे लोग हैं जो कहा करते हैं कि "किसी बात में जी नहीं लगता।" निश्चय वे जी लगाना जानते ही नहीं है, नहीं तो सृष्टिकर्ता ने संसार में ऐसे २ सुयोग्य पात्र स्थापित कर रखे हैं जिन में चित्त आकर्षण कर लेने की सहज पक्ति है । पुस्तकें एक से एक उत्तम अनेकानेक मिल सकती हैं। और यदि अधिक न मिलें तो दो ही एक पोथी विचारने के लिए वर्षों सहारा दे सकती हैं। सज्जन भी जहाँ ढूंढो वहां प्रगट वा प्रच्छन्न रूप में मिल ही रहते हैं । अकबर बादशाह का स्वभाव था कि वे बालकों, किसानों और अति सामान्य श्रेणी के ग्रामीणों तक की बातें इस विचार से बड़े दत्तचित्त होकर सुना करते थे कि न जाने किस समय किस के मुख से कौन सी प्रकृति सिद्ध सुहावनी और शिक्षापूर्ण वार्ता सुनने में आवै । इस धारणा से उक्त नरेश ने बड़ी भारी अनुभवशालता प्राप्त कर लो थो। अतएव कभी किसी स्थल पर सज्जन समागम के अभाव की आशंका से मन मार के बैठ रहना उचित नहीं है। चार घर के खेरे में भी एकाध निरक्षर बुड्ढा ऐसा मिल सकता है जो अनुभव में अच्छे २ नवयुग विद्वानों से दो चार बातों के लिए अवश्य श्रेष्ठ होगा। हो, जहाँ ढंढ़ने से भी उपदेशक मिल सकें, वहाँ उपदेश पात्रों का तो कही अकाल है ही नहीं, सरलता और साधुता के साथ मनुष्य मात्र को सुशिक्षा दी जा सकती है । और एक पुरुप को भी अपने ढंग पर ले आने में मन को इतना संतोष होता है कि जिस ने अनुभव किया होगा उस का जी ही जानता है । सृष्टिविद्या का व्यसन भी ऐसा मनोरम होता है कि यदि एक तुच्छ तृण की दशा को विचार चलिए तो अनुमान शक्ति समझावैगी कि एक दिन किसी बन बाटिका, खेत वा मैदान की शोभा का वह अंग रहा होगा, कितने ही साधारण तथा असाधारण व्यक्ति उसे देखने आते होगे, कितने ही क्षुद्र कीट एवं पुरुषरत्नों ने उस पर विहार किया होगा कितने ही क्षुधित पशु उस के लिए लालायित होकर रह गए होगे और आज वह कितने ही दैविक दैहिक सुख दुःख देखता हुआ इस दशा को पहुंचा है तथा अब भी न जाने किस की आँख में पड़ के दुःख का हेतु हो किस ठौर पर जल वा पवन के मध्य नृत्य करे वा कहां पर अग्नि के द्वारा भस्म में रूपान्तरित हो जाय । ऐसे २ अनेक पदार्थ जगत में विद्यमान हैं जिन्हें ढूंढने नहीं जाना पड़ता किन्तु विचारने से ज्ञान की वृद्धि और चिन की सन्तुष्टि अवश्य होती है। फिर ऐसे निर्दोष कुतूद्दलों के आछत जो लोग मन मारे रहते हैं अथवा उस की प्रसन्नता के लिए कुपथ का आश्रय लेते हैं, उन्हें भाग्यहीन वा बुद्धि- शत्रु के अतिरिक्त हम नहीं जानते क्या कहना योग्य है । हां, बारम्भ में यदि इन के द्वारा सन्तोष न हो तो कुछ दिन यह समझ के इच्छा के विना भी इस मार्ग में पदार्पण करना उचित है कि पहिले पहिल सुखदायक कामों में कष्ट जान पड़ता है, स्वादिष्ट