पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५०६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४८२ [ प्रतापनारायण-अंधावली सयत्न रहा करे। इसी भांति हानि लाभ, सुख दुःबादि की दशाएं भी कालचक्र की गति के अनुस र सभी पर बोती करती हैं, जिन को चाल रोकने में प्रायः सभी असमर्थ हैं। इसलिए समझदार को चाहिए कि सभी कुछ सहन करने में दृढ रहे यद्यपि सर्वज्ञ और सदा एक रस अकेला परमेश्वर है, तथापि एक से एक चढ़े बढ़े बहुज्ञ तथा धीर पुरुष भी पृथ्वी पर हुआ ही करते हैं, और वे ही धन्यजन्मा कहलाते हैं। यों तो साधारण श्रेणी के लोग भी कहा करते हैं, और उन का कहना अयुक्त भी नहीं है, कि अच्छी २ वस्तुओं का संग्रह करना और बुरे २ पदार्थों को त्याग देना तथा अच्छे लोगों से मेल रखना, बुरे मनुष्यों से दूर रहना अच्छी बात है, यों ही सुख से समय बिताना परमात्मा की दया और दुःख में काल काटना अभाग्य का लक्षण है, किंतु असाधारण विद्याबुद्धिविशिष्ट व्यक्ति का कर्तव्य है कि जब जिस प्रकार के पुरुष, पदार्थ वा दैवगति का सामना आ पड़े, तब उपयुक्त समय के लिये उसी के अनुकूल आचरण को अंगीकार करके अपना निर्वाह कर ले, किंतु उस के प्रति लिप्त न हो जाय, नहीं तो दूसरे कामों के काम का न रहेगा। निलितता इसी को कहते हैं कि कायंसाधन मात्र के लिये सब से मिला भी रहना और साथ ही सब से अलग भी रहना। जो लोग अपने जीवन को असाधारण बनाया चाहते हैं उन के पक्ष में यह भी बड़ा भारी प्रयोबनीष गुण है, जिस के अभाव में बढ़ी भारी हानि यह होती है कि जहां एक ओर चित्त आकृष्ट हो गया वहीं दूसरी ओर का ध्यान तक नहीं रहता और ऐसो दशा में निर्वाह कठिन हो जाता है, क्योंकि मोह में वह सामथ्र्य है कि बड़े बड़ों को मूढ़ बना देता है। यदि वह बुरी बातों और बुरे लोगों की ओर खींच ले गया तब तो जन्म नष्ट कर देना कोई आश्चर्य ही नहीं है, किन यदि अच्छों की ओर लगा ले गया तो भी बुरों से बचे रहने के विचार और उपाय विस्मृत हो जाते हैं, और यह सहृदयता के विरुद्ध एवं पूरी अनुभवशोलता का बाधक है। इसलिए हमें चाहिए कि निलिप्त रहने का भी पूर्ण यत्न करते रहें । इसकी विधि यों है कि छठे पाठ में लिखी हुई रीति के अनुसार मनराज को अपना मित्र बना कर विवेक को उस के मित्रत्व में नियुक्त कर दें। वह उसे समझाता रहेगा कि गुण और दोष सभी में हुआ करते हैं। जिन्हें अनेक लोग अच्छा कहते हैं उन में भी ढूंढ़ने बैठिए तो कुछ न कुछ बुराई अवश्य निकलेगी और उतने अंश के लिये वे निस्संदेह त्याज्य हैं, फिर पूर्ण रूप से उन का ग्रहण क्योंकर बुद्धिविहित हो सकता है ? इसी प्रकार जो बुराई के लिये प्रसिद्ध हैं, भलाई से सर्वथा शून्य वे भी नहीं होते, तथा उन की उतनी हो भलाई से वंचित रहना भी बुद्धिमानी का कर्तव्य नहीं है, इसलिए उन का हठपूर्वक त्याग भी ठीक नहीं। इसी से अगले कोग कह गए हैं कि संसार की किसी बात में फंस जाना बुद्धिमान को अयोग्य है । इस में ऐसे रहना चाहिए जैसे जल में कमछ का पत्र रहता है अर्थात् अपनी स्थिरता बनी रहने भर को जल से संपर्क रखता है, उस में भीगता कदापि नहीं है। इसी प्रकार हमें भी उचित है कि जगत में केवल अपने काम से कार रक्खें, किसी प्रकार का आग्रह न करें, क्योंकि समय