पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१०

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४८६ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली प्रयोजन ही क्या है ? अतः जो कुछ करना हो उस में किसी की लज्जा न करनी चाहिए। किंतु यह सिद्धांत केवल विशेष अवसर की उपस्थिति में ग्रहणीय है। जब अपने और आत्मीयवर्ग के धन, धर्म और प्रतिष्ठादि पर कड़ी आँच माती देख पड़े, उस समय किसी का भय अथवा संकोच न कर के केवल अपने बल और बुद्धि से स्वत्व रक्षा कर्तव्य है। पर ऐसी आवश्यकता नित्य नहीं पड़ा करती, इसलिए सर्वकाल मे ऐसे विचार का अनुसरण भी उचित नहीं हैं। क्योकि जो लोग सभी बातो में केवल अपनी इच्छा का अवलम्बन करते हैं, उन का साधारण समुदाय के हृदय से ममत्व जाता रहता है, इन से उन के सुख दुःख लाभ हानि में सहानुभूति रखने वाले बहुत थोड़े हैं और उद्योग सफल होने में बड़ी २ बाधाएँ पड़ती रहती हैं। प्राचीनकाल के विमानों ने जो स्वतंत्रता ( आजादी ) की प्रशंसा की हैं और उस की प्राप्ति के अर्थ सयत्न रहने की शिक्षा दी है, उस का अभिप्राय है यह हैं कि हमें ऐसा उपाय करना योग्य हैं जिसके द्वारा अपने निर्वाह के निमित्त दूसरों का मुखावलोकन न करना पड़े, और दु.स्वभाष लोग हमें सताने का साहस न कर सकें। किन्तु बहुत लोग इस का ठोक आशय न समझ कर स्वतंत्रता का अर्थ निरंकुशता समझ बैठे हैं, अर्थात् किसी बात में किसी का भी संकोच न करना। वास्तव में यह सृष्टिक्रम के विरुद्ध का महा कुलक्षण है । विचार कर देखने से विदित होता है कि संसार में पूर्ण रूप से स्वतत्र कोई नहीं हैं। किसी न किसी का दवाव सभी को खाना पड़ता है। यदि साधारण श्रेणी के लोग विशेष विद्या बुद्धि विशिष्ट पुरुषों की उपेक्षा करें विशेष पदाधिकारी जन अपने राजा की नीति को शिरोधार्य न समझें, राजा अपने से अधिक सामर्थ्य वाले महाराजों की ओर से निश्चिन्त हो बैठे, तो जगत् का काम न चले, सभी को दिन बिताना कठिन पड़ जाय, यहाँ तक कि यदि बड़े लोग छोटे लोगों की प्रसन्नता अप्रसन्नता का ध्यान न रक्खें, तो उन का बड़प्पन ही न स्थिर रहे। प्रजा न हो तो राजा किस का प्रभु कहलावैगा? सेवक न हो तो स्वामी किस पर स्वामित्व करेगा? ऐसे २ उदा- हरणों से सिद्ध हैं कि निरी स्वेच्छाचारिता किसी के पक्ष में ठीक नहीं। सभी सवका संकोच छोड़ कर अपने २ मन के राजा बन बैठे तो आवश्यकता पड़ने पर किसी को भी किसी से सहायता न मिले। अतः सभी को चाहिए कि प्रत्येक बात में पंच और परमेश्वर की ओर ध्यान रखें, विशेषतः जिन्हें अपना जीवन दूसरो के लिए उदाहरण स्वरूप बनाना हैं, इन्हें तो यही उचित है कि प्रत्येक बात और सभी कामों में सर्वसाधारण की रुचि पर ध्यान रक्खें, बरंच थोड़ी बहुत हानि तथा कष्ट भी सहना पड़े, तथापि जनरंजन से विमुख न हों, तिस में भी स्वजातीय एवं स्वदेशीय लोगो की दृष्टि में अरुचि उपजाने वाली चेष्टा वाणी और वेपादि को तो यथासम्भव परित्या न समझें । जो लोग इस विचार को न रख कर विद्या और धर्म का प्रचार तथा देशोपकार का कोई कार्य करने में कटिबद्ध होते हैं वे यदि हृदय से निष्कपट भी हों तो भी जैसी चाहिए वैसी कृतकायंता नहीं लाभ कर सकते, क्योंकि नीतिशास्त्र का बड़ा भारी सिद्धांत यह