पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१३

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सुचाल-शिक्षा]
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सुचल-शिक्षा] ४८९ सकता है ? इसलिए हमारे पाठकों को योग्य है कि सब कुछ जानने वूझने, औरों की व ढाल देखने सुनने तथा सब से हिले मिले रहने का प्रयन में लगे रहने के साथ ही साय यह भी ध्यान रक्खा करें कि जिस बात को अन्य, देशीय और अन्यधर्मी लोग कन्ते हैं वह हमारे पूर्वजो के समय से आज तक किस रीति से बी जाती है। यद्यपि समय के फेर फार से वर्तमान काल में हमारी बहुत सी बातों में परिवर्तन आ गया है पर इतना ही नहीं हुआ है कि प्राचीन इतिहासों व वृद्ध पुरुषों के द्वारा उन का शुद्ध रूप परिज्ञात न हो सके अथवा उदाहरण के द्वारा वे फिर प्रचरित न हो सके। यहां यह ज्ञान रखना योग्य है कि भारववर्ष को सनातनी मर्यादा स्थापित रखने में शारीरिक, आन्मिक, सामाजिक लाभ ही है, हानि किसी प्रकार की नहीं क्योंकि उस के संस्थापक गण अपने समय में समस्त संसार के शिक्षक और रक्षक थे, अतः वे जो बातें नियत कर गए हैं, एतद्देशीय जलवायु एवं प्रकृति के अनुकूल ही रियत कर गए हैं, अतः हमारे पक्ष में वी वास्तविक हित और सच्ची शो का मूल है। इस से दम आग्रहपूर्वक उर्स को ग्रहण किए रहना चाहिए, क्योंकि वह मारी है और जगत् में हम उसो के द्वारा आत रूप में परिचित हो सकते हैं। कार पान पहिनने तथा अक्ष्य पदार्थों के खाने वाले हिन्दुओं को हिंदू ही नही गित मानते बरंच अच्छे अगरेज भी तुच्छ ही दृष्टि से देखते हैं। कार में विदेशो भेष भानादि रसिकों को न भी अनित परिमाण से अधिक व्यय करना पडता है तथा गहना पड़ता है। हाई के दिनों में बहतों ने देखा होगा वि. बाबू बनने वाले परदेशी 1:ने के बा बना बहुधा परिभ्रमण के समय शरीर के कंप और मरन, मी कार को गाने में अक्षम हो जाते हैं, इसी प्रकार ग्रीष्मान में सूक्ष्म बल न पान कार अमिता महते हैं। और इधर पूरी रोटी खाने तया धोती अंगरका पनि वाम हिंगमुदाय मे विधर्मीयता का भ्रम नही उपजाते, नगे ही सामयिक राजार में म विजानती दिए जाते, कार से व्यय की यून्ता और सुविधा की अधिकता का सुब यहा लाभ करते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मरूप से जिस आर दृष्टि संचालन कीजिए उधर ही इस बात का जीवित उदाहरण मिलेगा कि हमारा कल्याण हमारी ही रीति के अवलम्बन पर निर्भर है, और अभ्यास पड़ने पर प्रत्यक्ष बोध हो जायगा कि निजत्व को जितना अधिक आदर दिया जाय उतना ही सुग्व संतोष और सौभाग्य की वृद्धि होता है । दूसरों के अनु- सरण से हम अपनापन खो बैठते हैं और अपने लोगों की दृष्टि में उचित सत्कार नहीं पा सकते, तथा जिनको नकल करते हैं वे भा सर्वभावेन अपनी बराबरी का नहीं बना लेते। एवं यह ऐसी हानि है कि सारे संसार के लाभ से भी पूर्णतया दूर नही हो सकती । इसलिए बुद्धिमत्ता यही है कि सब कुछ देखते भालते, जानते बूझते, करते धरते हुए भी अपनापन बनाए रखें और उसकी त्रुटियों को पूर्ण करने मे सयत्न रहे । इसी में हमारी उन्नति अपच हमारे द्वारा दूसरों का हितसाधन राम्भव है।