पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१४

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ग्यारहवां पाठ आत्मगौरव संसार मे अमाधारण विद्याद्धिगुणगौरवादिविशिष्ट व्यक्तिरत्न बहुत थोड़े होते हैं, पर निरे निरक्षर निर्बुद्धि गुणशून्य भी बहुत नहीं होते । सृष्टिकर्ता ने श्रेष्ठता प्राप्त करने की थोड़ी बहुत सुविधा सभी को दे रक्खी है और माननीय मानीषियो ने सृष्टिशिरोमणि ( अशरफुलमखलूकात ) की पदवो मनुष्य मात्र को दे रक्खी है, अतः किसी को भी अपना जीवन तुच्छ न समझना चाहिए । विशेषतः पढ़े लिखे समझदारो को तो यह विचार प्रतिक्षण बनाए रखना उचित है कि जब हमारा शरीर परमात्मा ने नौ मास मे परम चातुर्य के साथ सृजन किया है, माता पिता ने प्राकृतिक प्रेम के साथ अपनी हानि एवं कष्ट पर दृष्टि न करके हमारा लालन पालन किया है, विद्यादाता महाशय अपनी महत्परिश्रम के द्वारा वर्षों की संचित की हुई विद्या रूपी प्रशंसनीय पूंजी हमे सौप देने के लिए प्रस्तुत हैं, ऐसी दशा मे यदि हम जीवन का गौरव न करें तो परमेश्वर के महा- प्रसाद तथा जननी जनक के अकृत्रिम स्नेह अथच गुरुदेव की असुरनीय कृपा का तिर- स्कार करके पापभागी होगे ! यह माना कि जीवनोपयोगी समस्त सामग्री एवं याव- त्सद्गुण सव मे नहीं हुआ करते, पर इसमे भी कोई सन्देह नहीं है कि युक्ति, और परिश्रम के द्वारा आवश्यकता मात्र की पूर्ति हो सकती है। इसके अतिरिक्त यदि सूक्ष्म विनार से देखा जाय तो एक न एक बात की श्रेष्ठता सभी मे हुना करती है। निर्धन लोग यदि मुस्ताद भोजन और मुदृश्य वस्त्राभरणादि मे बहुत सा व्यय नहीं कर सकते तो परिश्रम और संतोप के द्वारा निर्द्वन्द्व एवं प्रशंसनीय जीवन लाभ कर सकते हैं । निर्बर जन, जो स्वयं किसी प्रबल शत्रु का मानमर्दन नहीं कर सकते, तो सहनशीलता मे प्रसिद्ध हो के अथवा चतुरता के साथ बहुत से सहायक बना के मुखी तथा सुयशी बन मक्ते हैं। जिन्हे बातें बनाना नहीं आता वे सुवक्ताभो के समुदाय मे आहत न होने पर भी सत्यवादी अथच स्पष्टवक्ता वा निष्कपट की पदवी लाम कर सकते हैं। जो सब ओर से निराश्रय हैं, वे जगदायय का आश्रण ग्रहण करके सर्वसुविधासम्पन्न हो सकते हैं । ऐसे २ अनेक उदाहरण विद्यमान होने पर भी हम नहीं जानते, वे कसे लोग हैं जो अपने जीवन का आदर नहीं करते? यह माना कि सामथ्र्यवान के पक्ष में नम्रता एक अमूल्य भूषण की शोभा तभी तक रहती है जब तक सामर्थ्य भी इसके साथ ही प्रदर्शित होती रहे । यदि हम अपनी सामर्थ्य को भूल के छिपा के अथवा लुप्तप्राय करके नम्रता का प्रदर्शन करें,तो उस मूर्ख का अनुगमन करते हैं जो भूषणीय अंग को काट के किसी भूषण का संग्रह करता है ! यो ही यदि हम स्थान और पात्र के विचार बिना सब कही नम्र भाव का प्रदर्शन करें, तो भी मानो हाथ के आभूषण को पांव में और पांव वाले को शिर पर