पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१६

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४९२ [प्रतापनारायण-ग्रंथावली में मरे मुक्ति किहि काज ।" इससे बुद्धिमानों को समझना चाहिए कि कुत्ता एक २ टुकड़े के लिए पंछ हिलाता है, दांत निकालता है, पेट दिखलाता है, पर इतनी खुशामद के द्वारा प्राप्ति इतनी भी नहीं होती कि दूसरे दिन के लिए एक ग्रास भी संचित कर सके, किन्तु हाथी केवल धीर भाव से खड़ा रहता है और स्वामी का कार्य मात्र सम्पादन कर देता है तथापि भूखा नहीं रहता। फिर हमी अपना गौरव छोड़ के क्या बना लेंगे ? जिसकी प्राप्ति के अर्थ बड़े २ लोग बड़े प्रयत्न करते रहते हैं, उसे थोड़े से स्वार्थ के हेतु त्यागना कहां को बुद्धिमानी है ? बारहवां पाठ आत्मीयता जन्म लेना और दौड़ धूप अथवा पगधीनता के द्वारा निर्वाह करते हुए एक दिन भर आना, मनुष्य एवं पशु पक्षी इत्यादि सभी में समान होता है । पर धन्य जन्मा वे ही कहलाते . जा अपने श्रमापाजित धन बल विद्यादि के द्वारा समातियों अथ च स्वदेशियों को उत्तल के मार्ग में ले आने का या करते' । तथा सच्चो उन्नति और उद्योग की पूर्ण सफलता तभी होती है, जब पूर्ण रूप से निजत्व को लिए हुए हो। यह मर है कि अच्छे लोग और उनकी बातें जहां मिले वही से सग्राह्य हैं, क्योकि उनके द्वारा लाभ ही हागा, किन्तु यदि हम अपने भायों से पृथक् हो के और अपने गुणों को वो के दूसरों का आश्रय लं, तो उनके द्वारा प्राप्त किया हुआ लाम वास्तविक लाभ नहीं है, वरंच उस का न, मं स्वरूप हानि है। अतः हमें अपनी और अपने लोगों की उन्नति का उपाय अपनो रोति पर और अपने ही रूप में कर्तव्य है, जिसका एकमात्र साधन आत्मीयता है अर्थात अपने देश के समस्त पुरुष पदार्थ प्रथा इत्यादि को सारे संसार से उत्तम समझ के आग्रहपूर्वक अंगोकार किए रहना, किसी के भय संकोच प्रवंचनादि से यह सिद्धांत कभी न छोड़ना कि अपने पक्ष में वही सर्वोपरि है जो अपना है। सच्चे पुरुपरत्न वे ही हैं जो किसी प्रकार के कष्ट एवं हानि अथच उपहास की चिन्ता न करके आत्मीयत्व का प्रण निमाते रहते हैं । इतिहासरसिक यदि सूक्ष्म विचार से देखें तो अवगत हो जायगा कि जब गिन देश वा जाति को उन्नति हुई है, और जितना इसका अधिक आदर किया गया है उननी हो सिद्धि समृद्धि की वृद्धि होती रही है, नरंच यह कहना भी अयोग्य नहीं है कि सर्वाधिक समुन्नति का साधन और लक्षण आत्मीयत्व ही है । मिन दिनों भारत देश सारी सृष्टि का शिरोमणि और भारतीय लोक समुदाय यावजगत् का रक्षक तथा शिक्षक सपना जाता था, सुख सम्पति का यहां तक बाहुल्प था कि सहस्रों सद्व्यक्ति सांसा. रिक सामग्रो को तुच्छ समझ कर ब्रह्मानन्द लाभ बारने के निमित्त वन मे आ बैठते थे, उन दिनों आत्मीयता का इतना आदर था कि बड़े २ सम्राट जटावल्कधारा कन्द-