पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१७

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सुचाल-शिक्षा]
४९३
 

सुमास-शिक्षा ] ४९३ मूमफलाहारी तपस्वियों का आगमन सुन के राजकीय परित्याग कर देते थे और अत्यन्त आदरपूर्वक तन मन धन से उन की मेता करने और आज्ञा पालने ही मे सपना मौभाग्य समझते थे, क्यो कि उन्हे निश्चय था लि रे 'किन एव गरलौकिक पार्म के प्रदर्शक यही हैं। इधर बढे २ मपि नज्ञामुमान के प्रियं अपमा परमानन्द कुश काल के लिए भूल कर उत्तमोत्तम शिक्षो मे पूर्ण समाख्यान दिया और ग्रन्ध निर्माण क्यिा करते थे, क्यो कि उन्हे ज्ञान था कि गन्नाल में फसे हुए देशभाइयो का कल्याण हमी पर निर्भर है। यही नहीं, बरंच अपने अयोध्या मगदि तीर्थो, गगा यमुनादि नदियो, तुलसी प्पिकादि वृक्षो तक को पूज्य दृष्टि से देवते ये। इस का कारण यह नही था कि वे ईश्वर को अद्वितीय अथच निराकार निर्विकार मानते थे। नहीं, ब्रह्मविद्या में वे अतुलनीय थे, "एकमेवाद्वितीयम" और "माणिपादोजवनो ग्रहीता" इत्यादि वेद वाग्यो की उन को को हुई ब्याख्या मे विदित है कि ईश्वरीय ज्ञान मे वे दक्ष थे, तथापि यात्मीयता के मधुर फल मे वंनित न होने के कारण अपने यहा की वस्तु एवं व्यक्ति मात्र को अपने परमाराध्य परमात्मा मे सम्बद्ध समझते थे, और इसी समाज के प्रभाव से बिस बात मे वाप लगाते थे, उसे पूरा कर छोड़ते थे और तजनित रसास्वादन का पूर्ण सुख लाम करते थे। पर अभाग्यवशतः जर मे हम ने अपने पूर्वजा का यह गुण छोड़ना आरम्भ कर दिया, तभी से हमारा अध.रतन आरम्भ हो गया। इन दिनो पर- मेश्वर की कृपा से हमारे अंगरेज अवनीपति ने हम फिर शिक्षा प्रदान करना नाकार किया है और समय २ पर उदाहरण द्वारा दिचलाते रहते हैं कि अपने यो अपने भावो, अपने देश के बने हुए पदाथो का क्यो कर जो कहा तक आदर करणोप है, और इस कृत्य का कैमा मी फ । या इस पुस्तक के पाठक पा वि और बद्धि को आखें हो तो विचारपूर्वका ६५ और इस परमान गुण को मोय कि अपना अपना ही है --अपने भाई, आना भात, अपन भेष, अपने भो.न, अपने भाव में किसो प्रकार का दोप समझना अपने हो जीवन को दूषित बना लेना है। यदि किसी के कहने सुनने वा भरने हो विचारने से कोः दोष दिखाई भी दे तो भो इन्द्र छोड़ना न चाहिए बरंच धर्य और स्नेह के साथ सम्भार करना उचित है। और दूसरो को बातों मे प्रत्यक्ष समीचीनता देख पड़े तथापि ललचा उठना ठीक नहीं, केवल काम निकाल लेने भर को उनसे सम्पर्क रखना योग्य है और साथ ही यह भी ध्यान रखना युक्ति- युक्त है कि जिस के साथ जितना अधिक नकटय हो उस के प्रति उतनी ही अधिक ममता कर्तव्य है । जो सजन इस का विचार रखते हैं वे ही अपनी और दूसरों की भी सच्ची उन्नति का साधन कर सकते हैं।