पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५१९

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सुचाल-शिक्षा]
४९५
 

सुचाल-शिक्षा ] ४९५ सदुपदेष्टाओं का है कि अंतरात्मा-अंतःकरण, काश्यंस ( Conscience ) वा जमीर के द्वारा अनुमोदित कर्म उत्तम होता है, क्योंकि यह वह शक्ति है कि बड़े २ और अनेक दिन के अभ्यस्त दुरानारियों को भी कार्यारंभ में एक बार कसंख्याकर्तव्य का स्मरण करा देती हैं, फिर उस को मानना न मानना उन के अधीन है। जो काम सज्जनों और सत्शास्त्रों ने निद्य ठहरा रक्खे हैं, उन्हें करने की जब कोई इच्छा करता है, तब उस के हृदय में भय, लज्जा अथवा ग्लानि अवश्य उत्पन्न हो जाती है और बल, धन, धृष्टता कुछ भी स्थिरचित्तता का दृढ़ हेतु नहीं होती। ऐसे अवसर पर चिरकालिक अभ्यास के कारण अंतःकरण को गति का प्रभाव चाहे थोड़ा जान पड़े अथवा प्रगाढ़, लोलुपता का पक्ष ले के वास्तविक सत्य से चाहे मुंह चुराया जाय व निरी ढिठाई का अलंबन कर के न्याय का अपमान किया जाय, किंतु जी में एक प्रकार का खटका और मुख पर वैवणं आए बिना नहीं रहता, तथा जो लोग उस आंतरिक खटके की उपेक्षा करते हैं, वे एक न एक दिन दुःख और दुर्नाम के भागी अवश्यमेव होते हैं । चाहे कैसे ही कार्यदक्ष क्यों न हों, जिन्हें अपने जीवन के बनने बिगड़ने की विशेष विता नहीं होतो व अंतःकरण की अवज्ञा को बुरा समझने पर भी यह समझते हैं कि अमुक काम अकरणीय तो है पर दो एक बार थोड़ा सा कर लेने में क्या हानि होगी। ऐसों को समझना चाहिए कि बड़ी ही भारी आपदा ने आ घेरा हो और उद्धार का उपाय केवल अकर्तव्य ही में दिखाई देता हो, उस समय की बात तो ग्यारी है, किंतु साधारण दशा मे ऐसा विचार अंत के लिये अच्छा नहीं। दुर्व्यसन पहिले पहिले सभी को रच्छ और सुखकारक से जान पड़ते हैं पर धीरे २ चित्त को अपना दास बना के जोवन को रकमय कर देते हैं। उन की गति ठीक इस कथा के समान है कि, एक बार जाड़े के दिनों मे अरब देश की बालुकामयी विस्तीर्ण भूमि के मध्य एक परिक अत्यन्त छोटे से पटमन्दिर में पड़ा हुआ रात्रि बिता रहा था इतने में एक शीत के सताए हुए ऊंट ने उस के पास आ के बड़ी नम्रता से निवेदन किया कि यदि कृपा कर के मुझे अपने वस्त्रगृह में ग्रोवा रख लेने भर का स्थान दान कीजिए तो बड़ा उपकार हो, मैं कष्ट से बच जाऊंगा तो आप का गुण गाऊंगा और बाप भी मेरी शारीरिक ऊष्मा से कुछ सन्तोष ही प्राप्त करेंगे। यात्री ने उस के मधुर भाषण से मोहित हो के आज्ञा दे दो। कुछ काल के उपरांत उसे निद्रित सा देख कर लम्बग्रीव ने कहा-जहां इतना अनुग्रह किया हैं वहां यदि आगे के पांब रखने भर को और ठौर दे दीजिए तो मानों मुझे बिना मूल्य क्रय कर लीजिए। मार्गी ने मोहवशात् यह भी स्वीकार कर लिया। यों ही क्रम २ से उक्त चतुष्पद उस के स्थान में आ मुसा और अन्त में जब उस ने भूमि संकोच से कष्टित हो के उपालंभ किया, तो पशु ने उत्तर दिया कि अपने निर्वाह के लिए कही छाया दढ़िए, मैं ऐसी रात्रि के जाड़े में ऐसा सुपास छोड़ के कहाँ जाऊँ। यदि हमारे पाठकों को भी उसी मार्गावलंबी की दशा प्रिय हो, तो तो और बात है, नहीं तो कुकृत्य को सहज एवं सुखदायक न समझ कर उस से सर्वथा बचे रहने के लिए