पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली ___ चौथे लंपटदास बाबा की चेलियां, क्योंकि गुरुः साक्षात् परब्रह्म' लिखा है। बरंच ( राम ते अधिक राम कर दासा)। फिर क्या, जिसने अपना तन मन धन बरंच धर्म कर्म सरदस्व 'कृष्णार्पन' कर दिया उस अनन्य भक्त की मुक्ति में भी क्या कुछ संदेह है ? हमारे पाठक कहते होंगे, कहां की खुराफात बकते हैं। खर तो अब सांची २ सुना चले। स्वर्ग नर्क मुक्ति कही कुछ चीज नहीं है । बुद्धिमानों ने बुराई से बचने के लिए एक हौवा बना दिया है। उसी का नाम नर्क है । और स्वर्ग वा मुक्ति भलाई की तरफ झुकाने के लिए एक तरह को चाट है। अथवा जो यह मान लो कि जिसमें महादुख की सामग्री हो वह नर्क और परम सुख स्वर्ग है, तो सुनिए, मर्की जीव हम गिना चुके । उन्ही के भाई बन्द और भी हैं । रहे स्वर्ग के सच्चे पात्र, वह यह हैं- किसी हिन्दी समाचार पत्र के सहायक, बशर्ते कि वार्षिक मूल्य में धुकुर पुकुर न करते हों और पढ़ भी लेते हो । उनको जीते ही जी स्वर्ग न हो तो हम जिम्मेदार । दूसरे देशोपकारी कामों में एक पंसा तथा एक मिनट भी लगावेंगे वे निस्संदेह बैकुण्ठ पावेंगे। इसमें पाव रत्ती का फरक न पड़ेगा। हमसे तथा बड़े २ विद्वानों से तांबे के पत्र पर लिखा लीजिए । तीसरे, गौ रक्षा के लिए तन मन धन से उद्योग करनेवाले, अन्न धन दूध पूत सब कुछ न पायें तथा सशरीर मोक्ष का मजा न उठावें तो वेद शास्त्र पुराण और हम सबको झूठा समझ लेना । चौथे, परमेश्वर के प्रेमानन्द में मस्त रहनेवाले तथा भारत भूमि को सच्चे चित्त से प्यार करने वाले, एक ऐसा अलौकिक अपरिमित एवं अकथ आनन्द लूटेंगे कि उसके आगे मुक्ति और मुक्ति तृण से भी तुच्छ हैं। हमारे इस वचन को जो 'ब्रह्म वाक्य सदा सत्यम्' न समझेगा वह सब नास्तिकों खं० १, सं० १० (१५ दिसंबर सन् १८८३ ई०) फूटी सह आंजी न सहैं श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध का वाक्य है "किरात हूणान्ध्रपुसिन्दपुल्कसा आमीरकङ्कायवनाः खसादयः । येऽन्ये च पापाः यदुपाश्रयाश्रयाः शुष्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥' समझने की बात है; जब असली यवनादिक शुद्ध हो सकते हैं तो नकलियों का तो कहना ही क्या है ? इसके अतिरिक्त परमेश्वर का नाम पतितपावन है। सो एक लड़का भी जानता है । पर कोई हिए कपारे का अंधा, इन्द्रियों का बंदा,