पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४९८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली तथा यथासाध्य उन के सुख दुःख में साथ देना एवं परिश्रम में हाथ बटाना अपच अपने आमोद में उन्हें सम्मिलित कर लेना मात्र पुष्कल है। और इस का फल प्रत्यक्ष अनुभूत हो जायगा तथा हृदय आप ही साक्ष्य देगा कि महात्मा गोस्वामी जी का यह वाक्य अत्युक्ति नहीं है कि-"सात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग । तुलं न ताही सकल मिलि, जो सुख लव सतसंग ।" पंद्रहवां पाठ संलग्नता विद्या और सत्संग के द्वारा बुद्धि प्रकाशित होने पर बहुत से कतन्याकर्तव्य आप से आप सूझने लगते हैं जिनमें से यदि दो एक का भी भलीभांति संग्रह त्याग निर्वाहित हो जाय तो जीवन के साफल्य में बड़ी भारो सुविधा होती है, किन्तु यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ऐसे वृहत्कार्य सहल में नहीं होते। भले कामो के पूर्ण होने में अनेक अड़चलें तथा बुरे कर्मों की विपक्षता में भी बहुत से प्रलोभन बाधा डालते हैं । दुष्प्रकृति के लोग बहुधा निष्कारण भी केवल अपने मनोविनोद के उद्देश्य से विरोध कर उठते है, आलस्य अथवा आत्मपक्ष के अनुरोध से बहतेरे चिरपरिचित मित्र भी विरोधी बन जाते हैं और ऐसी दशा मे एक वा अनेक बार उद्योग की पूर्ण सफलता में अवरोध की सम्भावना हुआ करती है । इसी से प्राचीन काल के नीतिवेता कह गए हैं कि "श्रेयांसि बहुविघ्नानि"। परन्तु बुद्धिमान बो उचित है कि विघ्नों का भय न करके अपने सद- नुष्ठान में लगा ही रहे । यह समझ ले कि मरना तो एक दिन हई है, यदि अपना काम पूरा कर के मरेंगे तो क्या ही कहना है और जो अधूरा छोड़ के मर गए तो भी दूसरे पूर्तिकारको को भी सहारा मिलेगा, फिर संकल्प से विमुख हो के लोक निन्दा का पात्र बनने में क्या रखखा है ? बम, प्रत्येक निराशता के समय इस प्रकार के विचार से चित्त को स्थिर रख कर दृढ़तापूर्वक अपने उद्योग की पूर्ति में लगा रहने से प्रायः सभी कार्य पूर्ण हो सकते हैं । बरंच कुछ काल के अनन्तर निन्दक लोग प्रशंसक और विघ्नकर लोग सहचर बन जाते हैं, तथा इस रीति से कठिनता मात्र के सरलता में परिवर्तित हो जाने की बड़ी भारी सम्भावना होती है। यदि दो एक बार के उद्योग से ऐसा न हो स्यापि इतना हुए बिना तो कदापि नहीं रहता कि पहिली पार जिन बातों से और जिन लोगों के द्वारा धोखा खाने में आता है, दूसरी बार उन से बचे रहने की अथवा उन्हें अपने अनुकूल बनाने की यथाशक्ति पूरी चेष्टा बनी रहती है, जिस से विघ्नों के एक २ वृहदंश का उत्तरोत्तर नाश होता रहता है और अन्त में मनोरथ की सफलता में कोई भी सन्देह नहीं रहता। इस से निस काम को उठाना चाहिए उसके पतिले यह सोच लेना चाहिए कि विघ्नों की उत्पत्ति बहुधा संसार के क्षुद्र अवयवों अथवा लघु- चेता लोगों से हुमा करती है और हमारा अनुष्ठान हमारी अन्तरात्मा एवं सर्वशक्तिमान