पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२३

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सुचाल-शिक्षा]
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सुचाल-शिक्षा ] परमात्मा की प्रेरणा से उत्थित हुआ है फिर यह क्यों कर सम्भव है कि कोटि विघ्न भो एकत्रित होकर हमारी वास्तविक हानि कर सकें ? हां, कुछ दिन वे अपना प्राबल्य दिखलावैगे तो दिखला लें, यह कोई नई बात नहीं है, सभी वृहत्कार्यों के कर्ताओं को हुआ करती है, पर कोई खटमलों के डर से खाट नहीं छोड़ देता । फिर हमी क्यों अपने पूर्व पुरुषों के इस वाक्य का उचित आदर न करें कि 'प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचः प्रारम्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति ॥" इस रीति का दृढ़ संकल्प रखने वालों के द्वारा ऐसा कोई भी कर्तव्य नहीं हैं जो न हो सके। जो बातें प्रायः असंभव सी बोध होती हैं वे भी श्रम एवं साहसपूर्वक संलग्न रहने से पूर्ण हुए बिना नहीं रहती। बहुधा लोग कहा करते हैं कि पत्थर पर खेती नहीं होती पर कोई संलग्नता का दृढ़व्रती नित्य किसी पर्वत पर नाज और जल छोड़ता रहे तो कुछ दिनों में प्रत्यक्ष देख लेगा कि, अन्न सड़ २ कर वायु द्वारा उड़ी हुई धूलि से सम्मिलित होते २ स्वयं उपजाऊ भूमि का रूप धारण कर लेता है और उस पर लहलहाता हुआ हरा भरा शस्यक्षेत्र दृष्टिगोचर होने लगता है। ऐसे २ अनेक उदाहरणों से स्वयं सिद्ध है कि मनुष्य के पक्ष में असाध्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि ईश्वर से उतर कर संसार में उसी की सामथ्र्य है। इसलिए उसे संकल्प को सिद्धि में विक्षेप की आशंका करनी योग्य नहीं है। जो लोग काल कर्म और ईश्वरादि का नाम लेके अथवा "ह है सोई जो राम रचि राखा । को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥" इत्यादि बचनों पर निर्भर करके कर्तव्य से विमुख रहते हैं वा आरंभशूरता को आश्रय देते हैं, वे निश्चय भूल करते हैं, क्योंकि काल और कर्म जड़ हैं, उनका बनना बिगड़ना हमारे आधीन है। हम यदि अपने समय को उचित रीति से बिताने में कटिबद्ध रहें तथा अपने कर्मों को नियम विरुद्ध न होने दें, तो काल एवं कर्म स्वयं कुछ प्रभाव नहीं दिखला सकते, अथव ईश्वर भी सच्चे उद्योगियों को निराश नहीं करता, अतः हमें उसके भरोसे पर अपने काम में लगा रहना हो योग्य है। और उपर्युक्त चौपाई का अर्थ यों समझना उचित है कि राम ने मानव जाति को सभी कुछ कर सकने के योग्य रचा है और संसार में सभी पुरुषों और पदार्थों के मध्य कुछ न कुछ विलक्षणता स्थापित कर दी है, उसका ज्ञान प्राप्त किए बिना उससे उपकार न लेना अथवा जि सो कष्ट वा हानि के भय से अपना ठहराया हुआ काम न करना वा कुछ करके छोड़ देना हमारा अपराध है । नहीं तो जितने बड़े २ प्रशंसनीय कार्य हैं सब मनुष्य ही के द्वारा सम्पादित होते · हैं । यदि हम मनुष्यत्व का सच्चा अभिमान रखते हैं तो हमें उचित है कि कभी किसी शंका संकोचादि को मुंह न लगाकर अपने कर्तव्य में प्राण पण के साथ लगे रहें, शीघ्रता और अधीरता का नाम न लें, फिर प्रत्यक्ष देख लेंगे कि कठिन कार्यों के सहज होने में चारों ओर से प्रगट एवं प्रच्छन्न रूप का कैसा कुछ साहाय्य प्राप्त होता है अथच कैसे सन्तोष के साथ जीवन की सार्थकता हस्तगत होती है ।