पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२४

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सोलहवां पाठ आत्मनिर्भर यह सच है कि सद्व्यवहार और मिष्टभाषण के द्वारा मनुष्य को बहुत से शुभ- चिन्तक मिल जाते हैं तथा विद्या एवं सत्संग से निर्वाह के अनेक मार्ग खुले हुए दिखाई देते हैं, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं है कि संसार को सभी बातें अस्थिर हैं। कभी २ बड़े २ विश्वासपात्रो की ओर से भी यथेच्छ रूप से आशा की पूर्ति नहीं होती अथच चिरम्यस्त विषयों के द्वारा भी मनोरथ सिद्धि मे त्रुटि की आशंका हो जाया करती है, और ऐसे अवसर पर चित को क्लेश हुए बिना नहीं रहता, अतः बुद्धिमान को उचित है कि बहुत से सहायक रखता हुआ और बहुत सी बातें जानता हुआ भी किसी के भरोसे न रह के केवल अपना भरोसा रक्खे। यह विचार मन से की दूर न होने दे कि यद्यपि सभी सब कुछ नही कर सकते, सभी को सभी प्रकार के पुरुषों और पदार्थों की सह यता का प्रयोजन पड़ता रहता है, एक मनुष्व यदि अपने सब काम अपने हो हाथ से करना चाहे तो बड़ी कठिनता उठानी पड़े, किन्तु उद्योगी व्यक्ति को शोभा इसी में है कि किसी बात में दूसरों का आसरा न रख के काम पड़ने पर कुंआ खोद के पानी पीने का साहस रक्खे । जीवन को क्षणभंगुर केवल धर्माचरण मे शीघ्रता करने के निमित्त मानना चाहिए न कि लोक व्यवहार के साधन में ! जो लोग बात २ में कहा करते कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, उन्हें समझना चाहिए कि चना एक छोटा सा निर्जीव दाना है, किन्तु हम साढ़े तीन हाथ के विद्याबुद्धिविशिष्ट हट्टे-कट्टे जीवधारी हैं, हमे उसके हांत को ले बैठना उचित नहीं है, बरंच उच्च भाव के साथ यह विचा. रना योग्य है कि सूर्य अकेला ही सारी सृष्टि में प्रकाश करता है, सिंह अकेला ही समस्त बन भूमि पर स्वामित्व करता है, यों ही उद्योगी पुरष अकेला ही सब कुछ कर सकता है, फिर क्या हम पुरुष नहीं हैं अथवा उद्योग की योग्यता नहीं रखते ? आरम्भ में सभी असाधारण कामों के करने वाले एकाकी ही कटिबद्ध होते हैं फिर हमी दूसरों का मुखावलोकन करके अकर्मण्य क्यों बनें ? अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता तथापि उछल कूद कर अपना बचाव कर लेता है, हम क्या उससे भी तुच्छ हैं कि अपने निर्वाह के लिए औरों का मुंह देखें ? हमारा जन्म अकेले ही हुआ है, मृत्यु भी अकेले ही होगी, रोग वियोगादि का दुःख भी अकेले ही सहना पड़ता है, आहार निद्रादि के सुख का अनुभव भी अकेले ही करते हैं, फिर अपने कर्तव्य ही में अन्य जनों की मुख प्रतीक्षा क्यों करें? यदि कोई स्वयं साहाय करना स्वीकार करे तो उसकी कृपा है अथवा पर- मावश्यकता के समय हमारी प्रार्थना पर ध्यान दे तो उसको बड़ाई है, किन्तु ईश्वर ने हमें भी तो सरीर और प्राण व्यर्थ नहीं दिए, फिर इन्हें तुच्छ क्यों बनावें । इनके द्वारा क्या नहीं हो सकता जो दूसरों को सहायता के बिना हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे।