पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२५

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सुचाल-शिक्षा]
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सुचाल-शिक्षा ] ५.१ प्राचीन लोगों का सिद्धांत है कि अपना काम अपने ही हाथ से होता है, दूसरों को न उस की उतनी ममता होती है न उस के द्वारा उतनी आशा होती है। इसी से लोग प्रायः उस के लिए उतने यत्नवान भी नी होते । इसीलिए अपने मनोरथ की सिद्धि के उपाय में दूसरों की सहायता पर निर्भर करना बुद्धिमता से दूर है। बस इस रीति के विचार को हृदय में दृढ़ता के साथ स्थापित रखने से हमारे पाठकगण आत्मनिर्भरता के अधिकारी हो सकते हैं। और ऐसी दशा में देख लेंगे कि जगत् और जगदीश्वर की सहायता भी ऐसे हो साहसी पुरुषों को प्राप्त होती है जो अपनी सहायता भी ऐसे ही साहसी पुरुषों को प्राप्त होती है, जो अपनी सहायता आप करते हैं। नहीं तो आश्रितों की सहायता करने वाले सत्पुरुष तो सैकड़ों में एक ही आध हुआ करते हैं और किसी बड़े ही भाग्यशाली को मिलते हैं । साधारण समुदार की रीति यही है कि लोग जिसे अनुद्योगी और पराश्रयाकांक्षी समझ लेते हैं उस का ममत्व परित्याग कर के उसे तुच्छ दृष्टि से देखने लगते है और ऐसा होने से धन, बल विद्यादि की विडम्बना ही होती है। अतः श्लाघ्य जीवन के अभिलाषियों का मुख्य धर्म यही है कि मेल- मिला सब से रक्ख पर आश्रय केबल जगदाश्रय का और अपने हस्तपदादि का रक्खा करें। इस का आरम्भ यों करणीय है कि नित्य कर्मों में अपने पक्ष के कार्य मात्र अपने ही हाथ से करें और नैमित्तिक कामों में यह प्रतिज्ञा रकबे कि जो कुछ अपने किए हो सकता है उसके लिए मित्रों और सहा कारियों को कष्ट देना अनुचित है। इसके अतिरिक्त किसी ऐसे हस्तकौशल का अभ्यास रखना भी अत्युचित है, जिसकी बहुत लोगों को बहुधा आवश्यकता पड़ती रहती हो, अथवा जो बहुतों के निर्दोष मनो- विनोद का हेतु हो। इन कर्तव्यों में परिजन को न डरे और किसी की लजा न करे तो प्रत्यक्ष अनुभव हो जायगा कि उद्योगी के लिए कोई कार्य कठिन नहीं है और विल अपना सहारा रखने वालों को चारों ओर से सहारा मिलता रहता है। सत्रहवां पाठ अर्थ शुद्धि मनुष्य कैसा ही कुलीन प्रवीण सदावारी लोकोपकारी इत्यादि क्यों न हो किंतु इस गुण के बिना संसार में प्रतिष्ठा पाता है, न अपने उद्योगों की पूर्ति में साहाय्य लाभ कर सकता है। क्योंकि धन वह पदार्थ है जिस पर सब लोगों के प्रायः सभी काम निर्भर करते हैं। इसी से जगत् में इस की इतनी महिमा है कि लक्ष्मी (द्रव्य ) को विष्णु ( जगत्पालक सर्वव्यापी ईश्वर ) को स्त्री मानते हैं। अर्थात् घर में पुरुषों की