पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५०४
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंधावली . जगत् में तीन प्रकार के लोग है-बड़े, छोटे और बराबर वाले। उन में से बड़ों में माता पिता और गुरू का सब से बड़ा पद है, क्योंकि जननी और जनक न होते तो हमारा शरीर एवं तत्सबंधी लोक व्यापार कुछ भी न दृष्टि आता । अस्मात् इन दोनों की सेवा में यदि हम अपना सर्वस्व वरंच प्राण तक अपंण कर दें, तो भी कोई करतून नहीं करते, क्योंकि सब कुछ उन्ही का प्रसाद है । हां, किसी कारणवशतः इन के द्वारा अपमानित वा कष्टित होकर यदि हम इन से मुंह फेरें, तो हमारी नीचता है । जिस समय हम किसी प्रकार अपने निर्वाह के योग न थे, उस समय इन्होंने वर्षों नाना कष्ट एवं विविध हानि सह कर, हमें पाल पोस के इतना बड़ा किया है, किर हम इन के उपगारों का बदला क्यों कर दे सकते हैं । अतः जन्म भर इन के आज्ञापालन और प्रमन्नत संपादन में तन मन धन से संलग्न रहना ही हमारा मुख्य कर्तव्य है। इसी पत्रकार विद्या सभ्यता प्रतिष्ठा एवं कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान हमें गुरू के द्वारा प्राप्त होता हैं, अस्मात् इन का भी प्रेम और प्रतिष्ठा संसार भर से अधिक करणीय है, अथच जो लोग इन के मित्र हों तथा हमारे साथ इन का स्नेह करते हों वा जाति संबंध में इन के तुल्य हों, वे भी इन्हीं की भांति आदरणीय हैं, कितु मुरू: इन्हीं को समझना चाहिए । इन के अतिरिक्त न्यायपरायण राजा अथव तद्वारा नियत किए हुए शासनकर्ता माननीय हैं. क्योंकि उन्हीं के द्वारा हमारे यावत् मान्य पुरुषों की रक्षा होती है। इन नाने के उपरांत जाति, वय, विद्या, सज्जनता, धन, बल, मान इत्यादि किसी बात में जो अपने से बड़ा हो उस का बड़ों का सा आदर करना उचित है। क्योंकि ऐसे लोगों की उपर्युक्त मान्य चतुष्टय ही से उपमा दी जाती है, पर यह समझे रहना चाहिए कि उपमान सदा उपमेय से श्रेष्ठ होता है । छोटों में पुत्र शिष्य और लघु भ्राता मुख्य स्नेह पात्र हैं। इनकी तन धन और सदुपदेश से सहायता करनी चाहिए। तथा इनके सामने अपना आचरण भी ऐसा ही रखना उचित है जिसे देखकर ये सदाचार के अनुगगी बनें। ये यदि कोई अनुचित कार्य करें तथापि इनसे घृणा करके प्रोतिपूर्वक समझा देना योग्य है । जिस बात को न समझ मके उसे बहुत सरल भाषा में समझाना उचित है। यदि समझाने पर ध्यान न दें तो ताड़ना भी अनुचित नहीं है किंतु इनकी ओर से निश्चेष्ट हो बैटना ठीक नहीं । बड़ों का आदर, छोटों पर दया, बराबर वालों पर स्नेह निर्वाह की रीति, सजीवन के उपाय इत्यादि हितकारक विषय बराबर सिखलाते ही रहना चाहिए। और इन्ही की भांति उनके साथ भी बर्तना चाहिए जो गृह कुटुम्ब जाति पड़ोस ग्राम देश में अपने से न्यून सामर्थ्य रखते हों। बराबर वालों के साथ अपनी देह का सा ममत्व रखना उचित है। उनमें सबमें सब से अधिक स्वत्व श्री का है। यहां पर यह भी स्मरण रखना योग्य है कि जैसा बर्ताव जिस श्रेणी के पुरुषों से कर्तव्य है वैसा ही उनकी स्त्रियों से भो करणीय है, किंतु विलक्षणता इतनी है कि सच्चे जी से प्रीति करने वाले मित्रों की स्त्रियां माता के तुल्य