पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५२९

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सुचाल-शिक्षा]
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सुचाल-शिक्षा ] ५०५ हैं यद्यपि उनके पति बराबर ही का अधिकार रखते हैं। इनके अतिरिक्त जो जान पहि- चान के लोग किसी बात में अपने बराबर हों और स्नेहप्रदर्शन करते हों, वे भी बराबर ही के स्वत्वाधिकारी हैं किंतु ऊपर कहे हुओं से उतर के और इनके उपरांत जाति और देश के ज्ञानो गुणी सुरीति प्रचारक सजनता प्रदर्णक इत्यादि सभी लोग साहाय्यपात्र हैं, किंतु पहिले घर वालों के सब अभाव पूरे कर लेना चाहिए तब भित्र बान्धव प्रतिवासी देशवासी आदि की सहायता का उद्योग करना चाहिए और विजातीय, विधर्मीय इत्यादि से केवल उतना ही सम्बन्ध रखना चाहिए जितना स्वार्थसिद्धि के लिए प्रयोजनीय हो । यह नहीं कि "बाहर वाले खा गए घर के गावं गोत"। जिनके साथ हमने कभी कोई भलाई नहीं की, उनके ऊपर हमारा कुछ भी स्वत्व नहीं है। यदि उनमें कोई अपनी ओर से हमारे हितसाधन की चेष्टा करे तो उसका अनुग्रह है । हमें उसके प्रन्युपकार का अवसर देखते रहना चाहिए; विन्तु यदि हमारी आवश्यकता के समय प्रार्थना करने पर भी पान न दे तो उपालंभ का पात्र नहीं हो सकता। जिसने धोखा देकर हमारै धन, मान, प्राण, वं धर्म में बाधा डालने का मानस किया हो, वह कैसा हो क्यों न हो किन्तु त्याज्य है, उपका हम पर कोई स्वत्व नहीं । इसी प्रकार अपने तथा आत्मीय वर्ग के वह पनार्थ गिनके द्वारा अपना एवं उनका शरीर अथच सम्भ्रम रक्षित रहता हो, नित्य वा की मन प्रसन्न होता हो, वे भी यत्नत; संरक्षणीय हैं। उनमें से यदि किसी पर हमारी विशेष रुचि न हो, तो भी उस का तिरस्कार करना योग्य नहीं है। __इस रीति में ध्यान रखे हुए जो लोग प्रत्येक पुरूष एवं पदार्थ के स्वत्व की रक्षा करते रहते हैं, वे जीवनयात्रा मे बड़ी भारी मुविधा प्राप्त करके सुम्व और सुकीति के भागी होते हैं। क्योकि सब किसी को उनके स्वत्व का विवार रहता है और यदि दैव. वशात् कोई उसके संरक्षण में त्रुटि करे, तो बहुत लोग सहायक हो जाते हैं। रहा अपना स्वत्व, उसका किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के द्वारा अदर्शन हो तो प्राप्ति के लिए नम्रतापूर्व विनय करना चाहिए और छोटो के द्वारा हो तो दयापूर्वर क्षमा करते रहना तथा भविष्यत् के लिए सावधानता की शिक्षा देते रहना उचित है, एवं बराबर वाले ऐसा करें तो यदि धन मानादि की विशेष हानि न देख पड़े तो उपेक्षाकर जानी योग्य है, किन्तु यदि इतर लोग ऐसा साहस करें तो पूर्ण शक्ति के साथ प्रतिकार कर्तव्य है, नहीं तो अक्षमता का भान होने से गौरव का ह्रास होना सम्भव है । अतः जैसे दूसरों के स्वत्व पर ध्यान रखना चाहिए वैसे ही अपने का भी पूरा विचार रखना उचित है, फिर क्स, साधु जीवन प्राप्त करने में अड़ वल नहीं रहती।