पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५३२

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बीसवां पाठ कर्तव्यपालन कर्तव्य उन कर्मों को कहते हैं जो अपने तथा अन्यों के कल्याणार्थ मनुष्य को अवश्यमेव करने चाहिए। वे दो प्रकार के होते हैं, एक नित्य, दूसरे नैमित्तिक । अभी अभी तक जिन बातों का वर्णन किया गया है वे नित्य कर्तथ्य से संबद्ध हैं अर्थात् प्रति- दिन वरन प्रतिक्षण उन पर ध्यान रखना उचित है । अब रहे नैमित्तिक कर्तव्य, उन के दो भेद होते हैं। एक साधारण दूसरे विशेष । साधारण वे हैं जो लोकरीत्यानुसार अपने नियत समय पर अवश्य करने पड़ते हैं अथवा दैहिक दैविक भौतिक योग से कभी कभी अवश्य ही उपस्थित होते रहते हैं, जैसे होली दीवाली इत्यादि पर्व और जन्म मरणादि घटना । इस से सम्बन्ध रखने वाले कृत्यों से नित्य की अपेक्षा अधिक व्यय और परिश्रम करना पड़ता है और उस की उपेक्षा करना किमी प्रकार उचित नहीं है, किंतु इतना ध्यान तो भी रखना चाहिए कि सामाजिक रीति में त्रुटि और अपनी सामर्थ्य से अधिक कुछ भी करना बुद्धिमानी से दूर है। पर हां विशेष नैमित्तिकों की उपस्थिति में जीवन के मध्य किसी ही किसी पर दो चार बार दैवात् आ पड़ते हैं, बहुतेरों को उन का सामना नहीं भी पड़ता और उन्हीं का उचित रूप से निबह जाना अक्षय सुग्व या अचल कीति का हेतु होता है उन के साधनार्थ अपने सर्वस्व वरन प्राण तक का मोह न करना ही पुरुषरत्नों का परम धर्म है । वह किस रूप में किम समय क्योंकर उपस्थित होते हैं और उन के निर्वाहार्थ किस रीति से क्या करणीय होता है यह बतलाना सहन नहीं है पर जिस बुद्धिमान, विद्वान, बहुदर्शी, अनुभवशाली पर आ पड़ते हैं, वह स्वयं अनुभव कर लेता है और निराकरण के लिए प्रस्तुत हो जाता हैं, यथा कोई प्रबल दुष्ट हमारे माता पिता गुरु और राजा को सताने में कटिबद्ध हो, वा किसी कारण से हमारी प्रतिष्ठा वा धर्म पर गहरा आघात लगना सम्भव हो उस अवसर पर हमें प्राणपण से सन्नद्ध हो जाना चाहिए । अपने अथवा घर में किसी के शरीर में कोई भयानक रोग हुआ हो तो घर फूंक तमाशा देखना उचित है । बन्धु बांधव इष्ट मित्रादि पर विपत्ति पड़े तो तन धन प्राण मान सब कुछ लगा देना योग्य है, और जाति के उद्धारार्थ जो कुछ करना पड़े स्वीकार्य है। ऐसे २ अनेक स्थल हैं, जिन में बहुत आगा पोछा न कर के धैर्य ओर साहस के साथ केवल इसी बात का अनुसरण कर्तव्य है कि 'धन दे के जिय राखिए, जिय दै रखिए लाज । धन दे जिय दे लाज दे एक प्रीति के काज ॥" क्यों कि यह विशेष रूप के नैमितिक कर्तव्य हैं और इन्ही के बनने बिगड़ने से आसाधारण जीवन का बनाव बिगाड़ होता है, किंतु इन का यथोचित निर्वाह वे ही लोग कर सकते हैं, जो नित्य के कर्तव्यों में पूर्ण अभ्यस्त हों।