पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५३५

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सुचाल-शिक्षा]
५११
 

सुचाल-शिक्षा ] ५११ २५–जिस मनुष्य को प्रसन्न और अप्रसन्न होने में बिलम्ब न लगता हो, उस की प्रीति पर भरोसा अथवा बर का भय करना व्यर्थ है । २६-शपथ खाने का स्वभाव बहुत ही निंदनीय है, चाहे झूठो हो चाहे सच्ची। पर यदि अत्यंत ही विवशता में कभी निकल जाय तो फिर अपना वचन निभाने का पूरा प्रयत्न करणीय है। २७-ईश्वर अथवा माता पितादि के अतिरिक्त और किसी के आगे दीनता प्रदर्शन करना महा तुच्छता है, किन्तु यदि कड़ी ही बेबसी में किसी के सन्मुख ऐमा करो और वह उपेक्षा कर जाय तो फिर उस का सन्मान न मन से करना चाहिए न वचन से । २८-आलस्य और कुपथ सब रोगों के मूल कारण तथा समस्त सुख सम्पत्ति के नाशक हैं अथच अपव्यय दरिद्र का जनक एवं सद्गुण मात्र का संहारक है। २९-चिंता करने से व्यर्थ शरीर का रक्त सूखता है। इस से उस के प्राबल्य के समय उद्योग करना चाहिए और उस में भी जी न लगे तो मन बहलाना उचित है । ३०-क्रोची और पर संतापी पुरुष का चित्त बिना अग्नि ही जलता रहता है । ३१-बाहिय पशा चाहे जैसी हो पर मन सदा प्रोत्साहित और प्रसन्न हो रखना चाहिए। ३२-विश्वासघात से अधिक कोई दुष्ट कर्म नहीं है । ____३३-संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो एक बात में भी सर्वोपरि हो, न ऐसा कोई गुण व पदार्थ है जो क्षणभंगुर न हो, फिर न जाने लोग घमंड क्या समझ के करते हैं। ३४-जिन लोगों के शरीर में कोई अंग न्यून वा अधिक हो, जिन की अवस्था अधिक हो गई हो, जिन की बुद्धि विद्या और जाति छोटो हो, उम का उपहास न करना चाहिए। ___३५---प्रशंसा वह है जो दूसरों के द्वारा परोक्ष में की जाय । नहीं तो अपने मन में सभी बड़े होते हैं और मुंह पर सभी सब को अच्छा कह देते हैं । ३६-अपना निर्वाह तो सभी कर लेते हैं पर जीवन उस का सार्थक है जिस से दूसरों का भला हो। ३७-विद्यार्थी, सेवक, क्षुधित और पथिक को छोड़के किसी को सोते से न जगाना चाहिए। ३८-पराए दोषों की चर्चा करने से अपने दोषों का त्यागना उत्तम है। ३९-किसी पुरुष वा पदार्थ को तुच्छ न समझो। किसी समय उस से भी बड़ा भारी काम निकलना संभव है। ४०-प्रसिद्ध पुरुषों को बुरे कामों का अवसर थोड़ा मिलता है । ४१-कोई अपराध कर के छिपाने की चेष्टा करने से दुना पाप होता है । अतः उस के लिए अनुताप और क्षमाप्रार्थमा कर्तव्य है।