पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५४४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

५१८ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली करेंगे पर हमारे ग्राहकगण समझें तो सही। हम ने तो जिन २ को नादिहिंद समझा था उनके पास पत्र भेजना पहिले से ही बंद कर दिया है । अब जो हैं उन्ही से आसरा है कि हमारा हौसिला न तोड़ेंगे। हमारी सहायता से किसी प्रकार मुंह न मोड़ेंगे। थोड़ी सी बात के लिये ब्राह्मण से भटई न करा गे, बरंच दिन दूना होसिला बढ़ायंगे । अकलमंद को इशारा काफी है । इतने पर भी न समझें तो हम क्या कहें। हमारी इस देशहितपिता और निरलज्जता पर धिक्कार है। खंड १ संख्या ११ (१५ जनवरी सन् १८८४ ) श्री अलवराधिपति का 'ब्राह्मण न लेने के विषय "उर्दू" में खत 'इनायत व करम फरमायमन जनाब पंडित साहब बाद दंडवत के बाजः हो कि परचः अखबार हिन्दी व उर्दू अखबार यहाँ बकसरत आ हैं कि उन के देखने को फुरसत नहीं मिलती। मिहरबानी फरमा कर अपना परचा एकुम फरवरी सन् १८८९ ई. से भेजना बन्द फरमाइयेगा और परचा माह जनवरी का वापिस इर साल खिदमत है। वंदा, मूलचंद नायब मीर मुंशी २ फरवरी सन् १८८४ ई. अलमरकम रियामत अलवर ।' हाय ! यह अभागिन हिन्दी अब किसकी सरण गहे ! क्योंकि जब हिन्दू राजा हो इस का तिरस्कार करते हैं तो यह किस की सरण गहे ? क्या इस के आदर करने वाले कहीं बिलायत से आवेंगे ? या जिन की मातृ पाषा हो नहीं वे आदर करेंगे ? यह तो संभव ही नहीं है, तो यह भारतवासियों को छोड़ किस की सरण गहे ? फिर जब राजा लोगों को इस बभागिन भाषा के सामाचार पत्र पढ़ने की फुरसत नहीं तो यह किस की सरण गहे ? उस से भी ग्रह 'ब्राह्मग' जो वर्ष भर अनूठे समाचार दे और एक रुपया १) मात्र दक्षिणा के, भला जब इस सस्ते पत्र के पढ़ने की फुरसत नही तो यह किस की सरण गहे ? हाँ ! शोक ! सहस्रशः पोक ! कि अभागिन हिन्दी अब किस को सरण गहे ? खंड १ संख्या १२ ( १५ फरवरी सन् १८८४ )