पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५४७

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परिशिष्ट ] ५२१ सहायता दो, पीछे चिट्ठी पर चिट्ठी भेना जवाब नदारद । इन्हीं कारणों से विलंब होता है। एक बार हो तो क्षमा मांगे, रोज का झगडा कहां तक चले ? इससे निरलन हो के साफ २ लिखते हैं, यदि शंघ्र सहाय मिली तो तो हमने जितनी देरी की है उसकी संती पाटको को प्रमन्न भी करते रहेगे और जो ऐसी ही सहाय मिली जैसी कानपुर के लोग, विशेषतः चौक के अमीर, प्रत्येक देशहितकारी काम मे दिया करते हैं तो हम लाचारी गे अपने सहयोगियो मे हास्यास्पद बन जायगे । आरंभशूर कहवाय लेंगे, पुस्तके बना के हाथों की खुजली मिटाय लेंगे, पर इतना रुपया कहां मे लावैगे कि घटी खाय के अस्वबार चलावें । सहायता हम केवल इतनी ही चाहते हैं कि संपादकगण तो कृपा करके अपने २ पत्र में 'ब्राह्मण' के विषय मे अपनी २ निष्पक्ष राय दे दें और ग्राहक महोदय, जिनको सचमुच इस पत्र से कुछ मजा मिलता होवै, कृपा करके एक मास के भीतर मूल्य भे दें । ग्राहक बढाने मे भी सब सजन कोशिश करें। बस हम रिणहत्या से मुक्त हो जायंगे, सबको जावजीवन असीसँगे, नही तो जो होगा वह तो देखना ही पड़ेगा। पर यह समझ लेगे कि हिंदुस्तान मे देश इत का न'म ही नही है, कोई किसी का नहीं। खंड ८, स० १ ( १५ अगस्त ह. स० ३) जरा सुनो पांच महीने हो गए, आप लोग दक्षिणा शीघ्र भेजिए, ब्राह्मण की दशा अच्छी नही है । यदि महाय दाम मे बिलम्ब हुवा तो चलना कठिन होता, अधिक क्या लिख्ने । भभौ पिछली ही रिणहत्या नहीं छूटी, अधिक कुढना अब असह्य है, रुपया भेजिए तो काम चले। इस पत्र के सम्माद नेशनल कांग्रेस मदरास को जाते हैं इस कारण इतना ही प्रकाशित हो सका, अतएव ग्राहक लोगो से प्रार्थना है इस क्षमा करेंगे । सं. ४ सं. ५ ( १ दिसम्बर, ह सं ३) हमारे उत्साह-बद्धक हम वास्तव में न विद्वान हैं म धनवान, न बलवान; पर हमारा सिद्धान्त है कि अपने जीवन को तुच्छ न समझना चाहिए, क्योकि इसका बनाने वाला सर्वशक्तिमान सर्वोपरि परमात्मा है । इसी से कभी २ हमारे सुख से मुसहफी का यह वचन उमंग के साथ निकल जाता है कि-