पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५४९

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परिशिष्ट ] ५२३. हम पर अनुग्रह करते हैं ! बहुत थोड़े से, पर बड़े २, लोग हमें नीचा दिखाने की भी फिकर में रहते हैं। हम पर डाह भी करते हैं। पर हमारे हृदयबिहारी की दया से आज तक कुछ कर नहीं सके ! यपि हसदेव ने पतनी सामर्थ नहीं दी कि हम अपने ममोर्थ को ठीक क पा सकें, पर इस दीन हीन दशा में हम कुछ हैं ! इसका कारण जहां तक सोचते है एही पाते हैं कि प्रेम के दो अक्षर ! अ कुछ नहीं !! अहह !!! क्या क्या करूं मैं शुक्र खुदाये कदीर का। बख्शा है मुझ फकीर को रुतबा अमीर का । धन्योऽसि प्रभो !! प्रेमदेव !! खं० ४, सं. ९ जिन राब साहब का कृपापत्र हो अप्रेल में छापा था उन्ही का यह दूसरा पत्र है। परमेश्वर ऐसे सजानो का भला करे । हम खुशामदी नहीं हैं कि किसी को झूठी प्रशंषा सके कुछ चाहें, पर हम कृतन भी नहीं है जो अपने हितषियों को धन्य- वाद न दें। इन परे लोग समझ सकते हैं कि सहृदय, प्रेमी, उधार और सच्चे सजन 'ब्राह्मण को कैसा समाते हैं। 'स्वस्ति श्री काम कुल गौरव, भाषाचार्य प्रतिभारतेंदु, रसिकमंडलीमंडन श्री प्रताप- नारायणा मिथ समापेपु निवेदनमिदम्- हे प्रेमदेव भक्त शिरोमणे! अहाहा! आनंर ! आनंद !! आनंद !!! महृदयों ने काव्यानंद को परमानंद सहोदर कहा है, सो सत्य है ! अन्य आज का दिन ! धन्य आम की घड़ी !! कि जिसमें ब्राह्मण की वंगी ( पारसल) यान पहुची !!! खोल के देखते ही उसके चतुर्थ जंड को द्वितीय संवा हाय लगी। प्रा पृष्ठ ही पर 'द' देखकर पढ़ना आरम्भ किया। क्या कहूँ उसकी लिखावट को ! कुछ पहले बनता ही नहीं ! ऐसी अनूठी हिन्दी-पद्मिनी मैंने ( अर्थात् महाराष्ट्र रूपी हफान-यासो हतभागी ने की जो सदा सर्वदा काली कलूटी कुरूपा हिंदुस्तानी, जो न हिती मुगलमानी, मुंह से खाने की निशानी देखता भालता और बोलता है) काहे को कभी देखी थी। महाशय आपको तो 'द' की दास्तान दुस्सह जान पले,पर मुझको तो उसने ऐसे रूप रंग,राव चाव,हाव भाव दिखलाए कि मेरा मन भ्रमर सब सुध भूल गया । उसको प्रत्यक्षर • हाय एक यह सबन हैं जो इतनी दूर बैठे नागरी की इतनी प्रतिष्ठा करते हैं ! और एक यहां वाले हिंदू जाति के कलंक हैं जो उर्दू और अंगरेजी अखबारों की गालियां भी बाते हैं तो भी उर्दू ही अंगरेजी पर मरे घरे हैं ( सं० ब्रा०)