पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५५

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परिंभ ] इसका उद्योग करते रहना श्रेष्ठ है कि अपने देश भाइयों का विचार देशभाई ही कर लिया करें । अभी यह भूमि ऐसो निर्भान नहीं हो गई कि प्रत्येक स्थान में ऐसा विद्वान विचारशील एक पुरुष भो न मिले जो हमारा उचित न्याय कर सकता हो । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है, भारतीय बादी प्रतिबादी का न्याय तो आप हुआ मही पर गौरांग महाशय ने हम पर कोई अत्याचार किया तो वही गेंद वही चौगान फिर न उपस्थित होगा ? इसका सहज उत्तर यह है कि जब हम अपने गौरव रक्षण में दत्तचित्त हो के, बद्धपरिकर हो जायेंगे, तब हमारे स्वाभाविक तेज के आगे किसी का मुंह न होगा जो हमसे विरुद्ध हो । उद्योग में सब सामर्थ्य है। जिस बात के लिये कुछ करते रहो एक न एक दिन उसका फल हो ही रहता है। आज कल राजा शिवप्रसाद सी०एस०आई. भारत व्यवस्थापक सभा का सभादल छोड़ने वाले हैं। उनके स्थान पर यदि कोई खुशामदी टट्ट बिठा दिया गया तो फिर मानों भारतवर्ष डूबा कुए में, गरचि भवर से निकल गया। अतएव हमारे देशानुरागियों का परम धर्म है कि किसी सजन धर्मिष्ठ भारत-भक्त को लेजिसलेटिव कौसिल का मेंबर नियत करने के लिये सार से निवेदन करे और पूर्ण विश्वास है कि महात्मा लार्ड रिपन ऐसे निवेदन को अवश्य सुनेगे । अपने सहयोगी 'उधित बक्ता' को सम्मति पूर्वक हम एक बार लिख चुके हैं और अब भी अवसर है इससे फिर चिताए देते हैं कि हिंदुस्तान का एक मात्र निष्कपट हितैषी श्रीयुत भारतेंदु हरिश्चंद्र के समान 'न भूतो न भविष्यति' ।' यदि वे कौसिल मे विगजमान हुए तो इस देश के अहो भाग्य है !!! आओ भाई संपादकों,एक मत हो के इसका उपाय करें । आओ प्यारे देशोद्धारक महाशयों, इस समय को हाथ से न जाने दें । देखो तो क्या होता है। उपाय का फल बड़ा गुणकारक है और स्वदेश हित साधन बड़ा सुकर्म है। यह न कहना कि कल की बात है, गोरक्षा मे क्या कर लिया था। वह किसी दूसरे का दोष नहीं था, तुम्ही 'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैत लक्ष्मी' इस परमोत्तम बचन को मूल गए थे। फिर सही, 'बेकाम न बैठ कुछ किया कर'। खं० १, सं• १२ ( १५ फरवरी १८८४ ई.) वर्षारम्भ अद्वितीय सर्वशक्तिमान भक्तवत्सल भगवान के युगल 'चरणारविन्द को अनेकानेक धन्यवाद है कि उसकी अपरिमित अनुग्रह से हम द्वितीय वर्ष में प्रवेश करते हैं। फिर क्यों न वह दीनबंधु दयासिंधु तो महा महा चांडालों नास्तिकों तक का पालन पोषण करता है, हमारी सुध कसे न ले, हम तो उसके ठहरे। वह ब्रह्म हम ब्राह्मण, वह जगतपिता हम जगतहितैषी, वह प्रेमस्वरूप हम प्रेमावलम्बी, हम से उस से तो अगणित