पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५५७

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परिशिष्ट]
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परिशिष्ट .] नीच देख के इतने दिन झेला है। पर करें तो क्या कर, जब जी टूट जाता है तक मनसा के विरुद्ध काम करने हो पड़ते हैं। हां जो लोग सचमुच इसे जीवित रखना चाहते हों वे निम्नलिखित तीन उपायों में से कोई अवलम्बन करके रक्षा कर सकते है तो करें। पहिला उपाय यह है कि कोई सामर्थ्यवान इसकी घटी का बोझ उठा ले, नफा हो तो उसका हम लेख दे दिया करेंगे। दूसरा यह है कि कोई सब प्रबन्ध अपने हाथ में ले ले और ग्राहक बढ़ाने में सदा यत्नवान रहा करे, हम भी यथाशक्ति उन्हें साथ देने को प्रस्तुत है। तीसरे दश ( इससे कम नहीं ) पुरुष एकत्र होके एक २ रुपया महीना पेशगी जमा कर दिया करें तो भी काम चल जाने की संभावना है । हानि लाभ, उद्योग अथवा ईश्वर के आधीन है । यदि उचित समझिए तो एक भाग हमसे भी ले लिया कीजिए । बस और हम कुछ कर सकते हैं न बतला सकते हैं न निरी बातों में आ सकते हैं। खं० ७, सं० २ ( १५ ग्रंल, ह० सं०७) विज्ञापन हम 'ब्राम्हण' को खुशी मे बंद नहीं करते। यदि एक २ रुपया महीना वाले दस साझी अथवा सच्चे सौ ग्राहक नियत कर देने का कोई भी जिम्मा ले तो फिर भी इसे चलाए जायं । पर न इसका आसरा है न खुशामद हो सकती है, इससे जब तक फिर हमाग ही जी फिर से न फुल फुलाय तब तक इसे बंद ही समझिए। क्योकि अब मेहनत करके और रुपया लगा के हिन्दी को ऐसी बेकदरी नहीं देखी जाती। इससे अब वह सजन हमारे पास अपने पत्र न भेजें जो मूल्य चाहते हों। हमसे बहुतेरे महाशय पत्र द्वारा कहा करते हैं कि कोई अपनी बनाई पोथी दीजिए तो छपवावें । उनकी सेवा में निवेदन है कि हमारी बनाई वा संग्रह की हुई पुस्तकों पर बांकीपुर निवासी श्री बाबू रामदीन सिंह का अधिकार है अतः हमारे बदले उनसे मांगना चाहिए। खं० ७, सं० १२ ( १५ जुलाई, ह. सं० ७) अंतिम संभाषण "दरो दोवार पर हसरत से नजर करते हैं। खुश रहो अहलेवतन हम तो सफर करते हैं ॥" परम गूढ रूप स्वाभावादि सम्पन्न प्रेमदेव के पद पद्म को बारम्बार नमस्कार है कि अनेकानेक विघ्नों की उपस्थिति में भी उनकी दया से 'ब्राम्हण' ने सात वर्ष तक संसार की सैर कर ली । नहीं तो कानपुर तो वह नगर है. जहां बड़े २ गोग बड़ों २ को