पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३४
[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

३४ [प्रतापनारायण-ग्रंथावली संबंध हैं। यदि वही हम को न अपनाये तो हमारा कही किसी प्रकार कभी निर्वाह हो न सके । हमी ऐसे दुर्बुवी हैं जो इतना जान कर भी उस को भूल जाते हैं। उसके . असंख्य उपकारों की संतो उसका धन्यवाद भी नहीं करते। नही २ इतना हम में

सामध्यं ही नहीं है कि उस अनन्त महिम का धन्यवाद कर सकें। अस्तु तो अपने

प्रेमास्पद वर्ग का धन्यवाद भी अति उचित है। सबसे पहिले सम्पादक महाथयों को, विशेषतः उचित वक्ता और भारतमित्र के सम्पादकों को धन्यवाद है जिन्होंने यथोचित मित्रता का परिचय दिया, किसी प्रकार का द्वैत भाव समझा ही नहीं, हर बात में सहायक रहे । आशा है कि ऐसी ही कृपा दृष्टि सदैव रखेंगे। इसके अनन्तर श्रीयुत पूज्यपाद पंडितबर बद्रीदीन जी शुक्ल महोदय को जहाँ तक धन्यवाद दिया जाय थोड़ा है, क्योंकि वही तो वास्तव में ब्राह्मण के जन्मदाता हैं। उन्ही की आज्ञा के बल से तो हमारी रुचि इस पत्र के प्रकाश करने में दिन दूनी रात चौगुनी होती रही है और होती रहती है और लाला छोटे लाल गया प्रसाद साहब तथा बाबू बंशीधर साहब को धन्यवाद न दें तो कृतघ्नता के दोषी ठहरते हैं। क्योंकि पहिले पहिल इन्ही महाशयों के सहाय से हमारा उत्साह द्विगुणित हुआ। क्यों न हो, सृष्टयारंभ से आज तक ब्राह्मण के • एकमात्र सहायक क्षत्रियों के अतिरिक्त है दूसरा कौन ? हमारे धन्यवाद और आशीर्वाद के सच्चे आधार तो यही हैं। हमारे पाठक कहते होंगे, सब को तो धन्यवाद आशीर्वाद हैं पर हमको क्या लाभ ? अरे यार, तुम्हारे ही लिये तो ब्राह्मण का जन्म है । तुम्ही तो इसके जीवन हो। तुम न हो तो सब अलल्ले तलल्ले भूल न जाते ? यह न कहना कि फिर अलल्ले तलल्लों से हमें क्या ? तुम को हर महीने इधर उधर की गपशप, ताजे ताजे लेख और जो कहीं दो चार बातें भी गांठ बांधो तो फिर क्या, दोनों हाथ लड्डू हैं। तुम्ही तुम तो दिखाई देने लगो। खैर इन शेखचिल्ली के से विचारों को कष्टसाध्य और देर तलब समझो तो अभी कोरे कोरे आशीर्वाद ही लीजिये-जब तक गंगा जमुना में पानी रहै, जब तक हिंदुओं में फूट रहै, जब तक निरे पंडितों में पेटहलपन रहै, जब तक महाजनों में वेश्या भक्ति रहै तब तक तुम चिरंजीव रहो, बशर्ते कि हमको भी चिरंजीव रखो । स्मरण रहै कि दोनों हाथों बिना ताली नहीं बजती। परमेश्वर करे तुम्हारे दूध पूत अन्न धन किसी बात की न्यूनता न रहे । पर निरी हमारी बातों ही में न आ जाना। दुध के लिये गोबध निवारण, पूत के लिये बाल्य विवाह दूरीकरण, अन्न के लिये कृषि विद्या की उन्नति, धन के लिये समुद्र जात्रा एवं शिल्प शास्त्राभ्यास भी करना पड़ेगा। क्यों ? कैसा आशीर्वाद है ? इससे भी तृप्ति न हो तो धन्यवाद के लिये भी हाथ फैलाइये वाह साहब, बड़े भलेमानुस हो ! वाह वाह, आपकी क्या बात है । ले अब तो प्रसन्न हो जाना चाहिये, और क्या ! य बात !!! हम तो बस इतने ही में निहाल हैं। हमारी तो केवल यही चाहना है कि हमारे सब ग्राहक आनन्दित रहें । जो मन लगा के पत्र देखते हैं और दक्षिणा श्रद्धापूर्वक हमारी भेंट करते हैं वे तो आनन्द हुई हैं, वरंच उनकी दया से ब्राह्मणा देवता भी आनन्दपूर्वक अपना धर्म निभा रहे हैं । जिन्होंने अब तक रुपये नहीं भेजे उन्हें भी प्रसन्न रक्छ । जीते हैं तो कहां जाते हैं, कभी न कभी पढ़े होंगे।