पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/६२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[प्रतापनारायण-ग्रंथावली . बिरला हो गया बीता होगा जो यथा सामर्थ इस परमोत्तम कार्य में मन न लगावै । हां भाइयो! एक बार हढ़ चित्त हो के, सेतुआ बांध के पीछे पड़ी तो देखो कसा सुख और सुयश पाते हो। देखो कसे शीघ्र हमारी तुम्हारी नपुंसकता का कलंक ( जो मुद्दत से लगा हुआ है ) दूर होता है ! इसमें अवश्य कृतकार्य होंगे । देखो शुभ शकुन पहिले ही से जान पड़ने लगे कि रीवां के राज्य में नागरी प्रचलित हो गई। हम जानते हैं, अवश्य यह हमारे मान्यवर श्रीयुत पंडित हेतराम महोदय के उत्साह का फल है। फिर क्यों न हो, इस देश के मंगलकारी सदा से ब्राह्मण तो हैं हो। सदा से, सब सदनुष्ठानों में इस पूजनीय जाति को छोड़ कौन अग्रगामी रहा है, और है ? हमको निश्चय है कि हमारे सच्चे सहायक ब्राह्मण ही हैं । विशेषतः वे सज्जन जिनको विश्वास है कि हमारा धर्म कर्म, संसार परमार्थ, मान प्रतिष्ठा, जीविका, सब कुछ हिंदी ही के साथ है तथा जो और भी महाशय हैं वे भी निस्संदेह ब्राह्मणों से किसी बात में बाहर नहीं। तो क्या सब मित्रगण हमारी न मुनेंगे ? क्या सक भर हिंदू समाज का साथ न देंगे ? क्या पंडितवर हेतराम दीवानसाहब का अनुसरण किचितमात्र भी न करेंगे ? कदाचित कोई महानुभाव कहैं कि हम तो सब करें, पर किस बल से ? सामर्थवानों की तो यह दशा है कि महाराज कहाते हैं, ललाई पर मरे जाते हैं, पर सवा आने महीना का 'ब्राह्मण' पत्र लेते सिकोड़बाजी करते हैं। क्या इन्ही से धन की सहायता मिलगी ? हमारे पास द्रव्य ही कितना है ? इसका सच्चा उत्तर यह है कि 'सात पाँच की लाकड़ी एक जने का बोझ भी सुना है ? सो महा निर्धन भी यदि अपनी भर चन्दा करते हैं तो एक दो लखपती को पिड़ी बोलावें । दृढ़ता चाहिए फिर कोई काम होने को न रह जायगा । बड़ों बड़ों को समझाने में कसर न करो तो कहाँ तक जायेंगे, एक दिन समझा के छोड़ोगे, हैं तो जनेऊ चुटिया वाले ही न ? कहाँ भागेंगे ? जब होली माता की बर्षी ( बुढ़वा मंगल इत्यादि ) में दाढ़ी वालों को सैकड़ों दे देते हैं तो नागरी माता के उद्धार में क्या कुछ न देंगे? जब रीवां के अल्पवयस्क महाराज ने इतनी बड़ी महत कीति संचित की तो क्या हमारे यावदार्यकुलदिवाकर सूर्यवंसावतंस मेवाण देशाधिपति सरीखे सर्वसद्गुणालंकृत महाराना तथा अन्यान्य आर्येन्दगण पीछे रह जायंगे? हम तो ऐसा नहीं समझते, अतएव हिम्मत रखो एक दिन नागरी का प्रचार होहीगा। खं० २, सं. २(१५ अप्रैल सन् १८८४ ई.)