पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/६४

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

४२ [ प्रतापनारायण-ग्रंथावली 'सूधे का मुंह कुत्ता चार्ट' कहा गया है। इसका गुण तो सारग्राही अंग्रेज ही जानते हैं, जिसके बल से “परम स्वतंत्र न सिर पर कोई । भाव मनहिं करो तुम सोई ।" तथा "चारि पदारथ करतल तासू" इत्यादि वचनों का उदाहरण बन रहे हैं। उनकी प्रत्येक बात मे हांजी हांजी न करना खुशामद शास्त्र के विरुद्ध है । उनके किसी काम में (कैसा ही हो ) न्याय अन्याय विचारना निरा व्यर्थ है । वे हमारे राजा हैं, और "राजा करे सो न्याय है, पासा परे सो दांव"। वे सिंह हैं । सिह को कौन कानून ? वे गोरे हैं, 'चाहें जिसे मारें जिसे चाहें य: जिलाएं। इन सीमअ तनों के लिये आईन नहीं है।' उन्हें तो ईश्वर ही ने स्वतंत्र किया है। उन्हें कोई कुछ कह के क्या कर लेगा। इनसे डरना हो श्रेयस्कर है क्योंकि यह येन केन प्रकारेण अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना जानते हैं । फिर इनके साथ 'टेंढ़ि जानि शंका सब काहू" का बर्ताव न करना भूल है । इलबर्ट बिल का तमाशा देख चुके, शिक्षा कमीशन की लीला देख चुके, इससे यह भी खुल चुका कि हिंदू मानव हैं ( मनु के बंशज ), आदमी नहीं ( आदम की औद)। फिर डाक्टर बॅकस के मुकदमे में क्यों आक्षेप करते हैं। क्या नहीं मालूम--'समरथ को नहिं दोष गोसाई।' डाक्टर साहब उस समाज के हैं जिससे लार्ड रिपन सरीखे प्रभु तरह दे गये । फिर भला "जेहि मारुत गिरि मेरू उड़ाही, कहहु तूल केहि लेख माहीं।" मई हम तो यही कहेंगे कि उन्होंने जो किया सो अच्छा किया। बिचारे क्या जानते थे कि जो हिंदू सैकड़ों गोबध होने पर नहीं जगते वह एक हिरन मार डालने पर हमारे शिकारी की बंदूक छीन लेंगे । जूद गाँध ( अहमदाबाद, गुर्जर देश में है ) के निवासियों ने निश्चय बुरा किया जो साहब के आदमी से छेड़ की। क्या न जानते थे कि "रोकि को सकै राम कर दूता'। जो कहो. उसके पास बंदूक का लाइस्यंस न था इससे वहां के सिपाही ने छीन ली, तो हम कहते हैं, न सही लैस्यंस, आदमी तो वह उन्हीं का था जिनकी कानन है। छीनने वाला हिंदस्तानी होकर ऐसा क्यों करे ? साहब बहादुर ने उन कलूटों को मारा एवं धन दंड दिया सो बहुत अच्छा। हिंदू तो इसी लिये बनाया गया है । काले रंग वालों को मारना कोई जुर्म है ? कौआ सभी कोई उड़ा देता है । बाल सभी कोई कटा डालता है । क्वैला सभी कोई आग में झोंक देता है । इसमें साहब ने क्या बुरा किया । कदाचित् हमारे पाठक कहें कि अभी तो "टेंड जानि शंका सब काहू" की प्रशंसा करते थे, अभी सब देशी भाइयो को काला कलूटा बनाने लगे। कैसी उलटी समझ है। उन विचारों ने भी तो दया और धर्म की उमग मे आके थोड़ी टंढ़ाई ही की थी। इसका उत्तर यह है कि इनमें यदि सचमुच की दया धर्म और टेढ़ापन होता तो क्यों घर फूंक तमाशा देखते । इनकी दया कहने मात्र की है, नहीं तो गोरक्षा के लिये क्यों दुम दबाते ? धर्म विडंबना है, नहीं तो मनसा वाचा कर्मणा "प्रेम एक परो धर्मः" का सेवन न करते ? टेढ़ाई का तत्व ही नहीं जानते। टेढ़े हैं तो केवल घर में । बाहर वाला तो, एक सड़ा सा हींग बेचने वाला भी, इनको माननीय है । तभी तो सारा भूगोल इन्हें निरा काठ का पुतला समझता है-"उठाए जिसका जी चाहे, बिठाये जिसका जी चाहे"। हम नहीं कह सकते कि गुर्जर लोग न टेढ़ाई करते तो बेंकस