पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/६५

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४३ टेढ़ जानि शंका सब काहू ] साहब ने भांग खाई थी जो मारे बेतों के उनकी खाल उड़ा देते और आप ही नवाब बन के उन पर २० रु० जुरमाना भी कर देते । भागते न अपने शिकारी की तरह लेंडी बनके ? मारते के आगे किसी की चलती है ? सच्चा बांकपन तो साहब ही का सिद्ध है जिसकी बदौलत हिंदुओं पर भी शेर रहे, म्यजिस्ट्रेट साहब के आगे भी धर्म का रूप, निरदोषता का पुतला ठहरे । क्यों न ठहरें, यह अंगरेज "स्वजातिपक्ष" के तत्वज्ञ हो के क्यों न कहें कि "शोक का विषय है कि डाक्टर साहब उन पर (गांव वालों पर) दावा नहीं करते, नहीं तो उन्हें डकैती के अपराध में अवश्य दंड दिया जाता।" ठीक है, कोड़े खाना और जुरमाना देना कोई दंड थोड़े ही है। हिंदुओं को तो कोल्ह में पेर गलना चाहिए था। बलिहारी! मजिस्ट्रेट साहब ! न्यायकारी हो तो ऐसा हो कि "जो कहुँ आपनो खोटो मिले तो खरो ठहराय के बाँधिए गांठी" एवं "टेंढ़ जानि शंका सब काहू" को प्रत्यक्ष कर दिखावे । अथवा यह तो स्वयं प्रत्यक्ष है, देखो ना बंबई. गवर्नमेंट ने चाहा था कि इस विषय में सच्चा इंसाफ करे, पर क्या होता है, अंत में वही "टेढ़ जानि शंका सब काहू" आँखों के आगे आया। उक्त गवर्नमेंट ने लिखा था कि सर्कार इस बात से अत्यन्त अप्रसन्न है कि डाक्टर साहब आप ही न्यायाधीश बन गए। हम कहते हैं जिसके चार जने सहाय हैं, जिसकी भुजा में बल है, जिसके दिल में बांकपन है, उसे सब अधिकार हई है-सिंह के पिर पर किसने मुकुट रखा है, वह तो मृगराज है ही। बम्बई गवर्नमेंट के निकाले डाक्टर कैसे सर्कारी काम से निकल सकते थे जबकि अंगरेजी अखबार तथा डिफेंस ऐसोसिएशन "पानी से पानी मिल मिल कीच से कोच" का उदाहरण रूप उनके दिन को रात, रात को दिन कर दिखाने को समर्थ, उनके ( डाक्टर के ) लिए राज्य भक्ति तथा न्यायाचरण का बलिप्रदान करने को प्रस्तुत थे। "तूणैर्गुणत्वमापत्रवंध्यन्तेमत्तदंतिनः" प्रसिद्ध है, फिर यहाँ तो "लंका में छोट सो बावन गज का" यह लेखो ठहरा। यहां इसके सिवाय क्या हो सकता था कि डाक्टर बॅकस अहमदाबाद से सूरत को बदल दिए जायं। इस उपाख्यान से हमें निश्चय है कि गोस्वामी तुलसीदासजी के उपरोक्त बचन पर किसी को संदेह न रहा होगा। फिर भी यदि हमारे भारतीय प्रातृगण स्वत्व रक्षण और ऐक्य बद्धन में कटिबद्ध न हों तो हम निरासता के साथ यही कहेंगे कि कोई क्या करे, करम हो फूटे हैं, भाग ही में लातें खाना बदा है, किमधिकम् । भाइयो ! हमारा तात्पर्य यह नहीं है कि अंगरेजों की भांति तुम भी राजद्वेशी बनो । नहीं "आज्ञाभंगो नरेन्द्राणां विप्राणां मानखण्डनम् प्रथमश्य्या परस्त्रीणामशस्त्रबध उच्यते"। इन पापों से परमेश्वर दूर रखै। पर हो, अपने धन, बल, विद्या, जाति, भूमि, मान, गौरवादि के रक्षणार्थ छल बल सभी कर्तव्य हैं। सदा सर्वदा भकुआ बना रहना ठीक नहीं। स्मरण रहै कि "टेंढजानि शंका सब काहू । सुनि समझहु मानहु पतियाहू ।" खं० २, सं० २ ( १५ मई सन् १८८२ ई.)