पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/६६

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मतवालों की समझ विचार देखो तो शंकर स्वामी, रामानुज स्वामी, बल्लभ स्वामी, कबीर साहब, नानक साहब, दादू साहब, ऋषभदेव, बुद्ध तथा मसीह इत्यादि कोई साधारण पुरुष नहीं थे, बरंच ऐसे थे कि सब लोग उनका नाम बड़ी प्रतिष्ठा से लें और उनके सदुपदेशों पर चल के अपनी शारीरिक और मानसिक उन्नति करें, क्योंकि यह सभी महात्मा परम भक्त एवं लोक हितैषी थे । यद्यपि साधारण बुद्धि को इनके उपदेशों में कहीं २ भ्रांति प्रतीत होती है, पर सारग्राहियों को समझ लेना चाहिए कि वह विषय किस के लिये हैं, किस लिये हैं, कब के लिये हैं। यदि तब भी न संतोष हो तो जान लेना चाहिए कि मनुष्य की बुद्धि सदा सब बातों में यथावत नहीं पहुंच सकती। कदाचित भूल ही हो पर वह मूल मनुष्यत्व का जाति स्वभाव है। आग्रह से वा किसी की हानि हो इस बिचार से कदापि उन्होंने नहीं कहा। यह बात भी हमको तब कहना उचित है जब हमारी बुद्धि सुनते, समझते, विचारते, सर्वरूपेण स्थापित हो जाय । नहीं तो जिन्होंने अपने जीवन का अधिक से अधिक समय प्रेमानंद तथा परोपकार ही में बिताया है उनकी बातें प्रायः निर्दोष ही हैं। उन सब का सिद्धांत केवल इतनी ही रहा है कि लोग हानिकारक कर्मों को छोड़ें, अपनी तथा अपने सहवतियों की भलाई में तत्पर हों और हर से, लालच में चाहे प्रीति से, प्रेमस्वरूप जगदीश्वर के आश्रित बनें । यद्यपि इन महानुभावों के बचनों में कहीं २ एक दूसरे से बिरोध सा देख पड़ता है पर मनस्वी की दृष्टि में वह वास्तविक विरोध कदापि नहीं है, क्योकि "सौ सयाने एक मत" यह बात बड़े बुद्धिमानों ने बहुत सोच समझ के कही है। ऐसा कैसे हो सकता है कि जो पुरुष सैकड़ों बातें हमारे हित की कहे वह हमें धोखा देने के लिये कभी उद्यत हो । हाँ हम स्वयं धोखा खारू वा हठवशात किसी के गुण में दोषारोपण कर लें तो उनका क्या दोष ? इनके वाक्यों से प्रकट है कि यह किसी को अंधकार में रखना कभी न चाहते थे। तुच्छ वुद्धि कुछ का कुछ समझ लें वह दूसरी बात है, नहीं तो "बे वजह गुफ्तगू नहीं मर्दै फकीर की। सीधी ही समझते अगर उलटी कबीर की।" सच तो यह है कि प्रत्येक ज्ञानी का वचन वास्तव में कुछ भलाई ही सिखाता है। जिन्होंने कहा है "संसार झूठा है" वे निश्चय सच्चे थे। उनके इस कथन का तात्पर्य यह था कि सांसारिक विषय केवल थोड़े दिन के लिये हैं। अंत में वही "मंद गई आंखे तब लाख किहि काम की।" अतएव उनके स्वाद में हमें ऐसा न लिप्त हो रहना चाहिए कि हम एंग्लोइंडियन लोगों की भांति यह सिद्धांत कर लें कि "आप जियते जग जिए कुरमा मरे न हानि ।" ऐसे ही जिन्होंने जगत् को सत्य माना है वे भी सच्चे हैं क्योंकि वे