पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/६७

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मतवालों को समझ] समझते थे कि जो संसार सर्वदा मिथ्या ही मान लिया जाय तो हम भी मिथ्या हो नायेंगे और हमारे अवश्य कर्तव्य धर्म कार्य भी मिथ्या ठहरेंगे। यदि किसी बुद्धि के शत्रु ने सत्कर्म मिथ्या समझ लिया तो उसने अपना तथा अपने मित्रों का जन्म ही नष्ट कर दिया, जैसा राजर्षि भर्तृहरि जी का सिद्धान्त है कि 'येषां न विद्या न तपो न दानं शानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मर्त्य लोके भुविभारभूता मनुष्य रूपेण मृगाश्चरंति' । अब हमारे सर्वहितैषी सज्जन विचार लें कि उपरोक्त दोनों बातें यद्यपि परस्पर विरुद्ध सी ज्ञात होती हैं पर वस्तुतः दोनों का झुकाव यही है कि यावज्जीवन मनुष्य को निरा निजस्वार्थी न होकर प्रसन्नतापूर्वक सद्गुष्ठानों में लगे रहना चाहिए। यों ही जिन्होंने कहा है कि सब ब्रह्म ही है उनकी मनसा थी कि ऐसा कोई काम तथा कोई स्थान नहीं है जहाँ हम प्रेम चक्षु से ब्रह्म को न देख सकें तथा जिन्होंने धर्मानुष्ठान ही के लिये अपना सर्वस्व त्याग दिया तथा जन्म भर 'सत्यंवद धर्मचर' इत्यादि ही उपदेश करते रहे उनका यह तात्पर्य कदापि न होगा कि लोग निरे अनीश्वरवादी नास्तिक हो जायं । क्या जाने उन्होंने यह समझा हो कि यदि आत्मा शुद्ध नहीं है, यदि अहिंसादि सत्कर्मों में प्रीति एवं पूर्ण श्रद्धा नहीं है तो केवल मुख से ब्रह्म ब्रह्म चिल्लाना व्यर्थ है । ईश्वर के विष में तो केवल गूंगे के गुड़ की भांति अनुभव के बिना कुछ कहना सुनना बनता ही नहीं। अनुभव सिद्ध लोग जो कहते हैं सब सत्य ही है। क्या यह बात झगड़ालुओं की समझ में आ सकती है ? यहाँ तो 'एक कि दोय' ? न एक न दोय । 'वही कि यही ?' न वही न यही है । 'शून्य कि स्थूल' ? न शून्य न स्थूल । 'जहीं कि तही ?' न जही न तही है। 'मूल कि डाल ?' न मूल न डाल । 'जीव कि ब्रह्म ?' न जीव न ब्रह्म । 'तो है कि नहीं नहीं ?' कुछ है न नहीं है। इसी भांति उस अतयं की उपासना भी अतयं है । जैसा श्रीवल्लभाचार्य स्वामी की आज्ञा है कि सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः' । मोई सब महानुभावों में देख पड़ता है। शंकर स्वामी ने 'अहं- ब्रह्मास्मि' कहा । सो प्रेम की पराकाष्ठा से आंकार व नास्तिक्य से नहीं। 'अनलहक' कहने को मंसूर के कोई नहीं समझा। वह खुद को भूल जाते हैं जो उसकी याद करते हैं। पर यह बात कहने व शास्त्रार्थ करते फिरने की नहीं है, केवल आत्मा में उस आश्चर्यमय का अनुभव करो। आनंद के जोश (उमंग) में जो निकलेगा सच ही है । इसके बिना वही 'कलो बेदान्तिनो संति फाल्गुने बालका इव' की गति होनी है । हमारे सर्वथा मान्य श्री भारतेंदुजी ने कहा है 'जो है तुम से जुदा व' मेरे लेखे रब या राम नहीं । यार तुम्हारे सिवा दुनिया से मुझे कुछ काम नहीं ।' अथवा 'प्यारे प्राण नाथ पिय प्रियतम सुनतहि हियो जुड़ात । ईश्वर ब्रह्मनाम हो वासे कानन फारे खात' । क्या कोई सहृदय इन वचनों को नास्तिकता कह सकता है ? यह भी प्रेम की सर्वोच्च पदवी में बक्तव्य है। सारांश यह है कि देशकाल तथा मनोवृत्ति के अनुसार महात्मा लोग अमृत- वाणी कह देते हैं। वह उनकी और परमेश्वर की रहस्य बातें हैं। उनका अर्थ ठीक ठीक वही समझ सकता है जो उस महात्माओं का सा मन रखता है। दूसरों को अधिकार नहीं है कि उन प्रेम वाक्यों का अर्थ बिगा है । यह बात कुछ दिन आत्मानुभव