पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/७१

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समझदार की मौत है ] ४९ हो जाते। रेलवे एक्ट में कहीं नहीं लिखा कि लातें खाओ। होना क्या था ? एक की दवा दो होते हैं । साहब की चटनी हो जाती तो सौ विश्वा पुलिस का नाम न लेते। अरे भैया हिंदुस्तान में अब सब बातें मौजूद हैं, पर हाय, प्रेम बिना ऋषिवंश की मट्टी स्वार है। हाय, उसी बिना सब बल होते हुए भी हम निर्बल हैं। हाय, गवर्नमेंट को हम क्यों कुछ कहें । हम निर्बल हैं और 'सबै सहायक सबल के कोउ न निबल सहाय ।' खं० २, सं० ४ ( १५ जून सन् १९८४ ई.) समझदार की मौत है सच है "सब ते भले हैं मूढ जिन्हें न ब्याप जगत गति', । मजे से पराई जमा गपक बैठना, रंडिकाकी की चरण सेवा में तन मन धन से लिप्त रहना, खुशामदियों से गप मारा करना, जो कोई तिथ त्योहार आ पड़ा तो गंगा में चूतड़ धो आना, वहाँ भी राह भर पराई बहू बेटियां ताकना, पर गंगापुत्र को चार पैसे देकर सेंत मेंत में धरममूरत धरमी औतार का खिताब पाना। संसार परमार्थ दोनों तो बन गए अब काहे को है है काहे की ब ब है। मुंह पर तो कोई कहने ही नहीं आता कि राजा साहब लड़कपन में कैसे थे। पीठ पीछे तो लोग नबाब को भी गालियां देते हैं इससे क्या होता है । आपरूप तो "दुहू हाथ मुद मोदक मोरे"। इन ... ..' को कभी दुख काहे को होता होगा। कोई घर में मरा मराया तो रो डाला, बस आहार निद्रा भय मैथुन के सिवा पांचवीं बात ही क्या है, जिसको झखै ? आफत तो बिचारे जिंदादिलों की है जिन्हें न यों कल न वो कल । जब स्वदेशी भाषा का पूर्ण प्रचार था तब के विद्वान कहते थे "गोर्वाणवाणीषुविशालबुद्धिस्तथान्यभाषारसलोलुपोहम्"। अब आज अन्य भाषा,वरंच अन्य भाषाओं का करकट ( उरदू ) छाती का पीपल हो रही है। तब यह चिता खाय लेती है कि कैसे इस चुड़ल से पीछा छूट । एक बार उद्योग किया गया सो तो हंटर साहब के पेट में समा गया। फिर भी चिता पिशाची गला दबाए है। प्रयाग हिंद समाज फिकर के मारे "कशीदम नालओ बेहोश गश्तम" का अनुभव कर रही है। इरादे तो बड़े २ किये पर न जाने वह दिन कब आवै । एक से एक विद्वान् एकत्र होगे तो कुछ न कुछ भलाई ही करेंगे पर हमें यह तलवों से ला है कि देखें कब करेंगे, देखें क्या करेंगे । इधर हमारे कई एक नरवल निवासी सहृदय मनोदय इसी विषय की मेमोरियल भेजने में संलग्न हैं । चाहिए था कि स्वभाषा रसिकों को एक सत्कृत्य में तत्पर देख के खुशी होती। पर हमको यह शोच है कि नरवल कानपूर के जिले में है और यहां को