पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/७२

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-ग्रंथावको भारंभ शूरता तथा कचढिलापन प्रसिद्ध है। कही गोरक्षिणी सभा वाली न हो कि करके छोड़ दिया और भी बुरा किया"। यही हाल सिविलसर्विस का है कि श्री सुरेंद्रो बाबू एवं समनस्कगण इस चिंता मे हैं कि हाव, हमारा सर्वस्व हरण कर लिया तिस पर भी सर्कार हमें उच्च रीति की नौकरी पाने योग्य भी नहीं रक्खा चाहती! इमे यह बात मारे डालती है कि सर्कार एक छंटी मतलब की यार है। वह स्वदेशियों के आगे हमारी उन्नति काहे को देख सकेगी। खर माना, रोए गाए, लडे भिडे, सरि ने १९ बरस के बदले २१ बरस का नियम कर भी दिया तो हमारे पश्चिमोत्तर देशी हिंदू विलायत मे परीक्षा देने के जने जायगे? इससे तो यही न बिहतर होगा कि विद्या तथा व्यापार की वृद्धि की जाय तो हम हजार सिविक सर्वेटो से भले रहेगे । साथ ही जी मे यह आता है कि तुम्हारी सुनता कौन है । और सुनो, रूसी धोरे २ इधर बढ़ते आते हैं। २६ जून के "बिहार बंधु' से ज्ञात हुआ कि "दरिया हरीदर को दखल कर लिया"। पढे लिखे लोग इस खुटका मे चुरे जाते हैं कि सर्कार क्यो गाफिल है। हमारी समझ मे दोनो तरह मरे। हमारी सर्कार लडेगी तो भी सब के आगे हमारे तिरंगा भाई खडे किये जायंगे । रहे काला भैया, उन्हें यो भी सर्कार निर्धन करके मारे डालती है । रूसी भी मारेहीगे। कुछ नजाकत पसंदी, कुछ प्रेस ऐक्ट का डर, हथियार पकड़ने का शहूर किस को है जो अपनी रक्षा करेगा वा स्वामिभक्ति दिखावेगा । हमे क्या है, गुलामी करना है. किसी की हो। न यह पूछे न वह पूछंगे । पर क्या कीजिये जो लोग कहते हैं "पढे ते मनई बलाय जाथै" सो ठीक भी जान पड़ता है कि "नहीं कुछ वास्ता लेकिन हरारत आही जाती है"। यह तो बडे २ उदाहरण हैं जिनके उद्योग मे दातो पसीना आवेगा । अब रोजमर्रा की बातें देखिए । कहीं किसी पर किसो दुराचारी बिदेशी ने मत्याचार किया, यहां क्रोधाग्नि भड़की। किसी को कोई दुख पड़ा यहां आसू भर आए । यह भी न हुआ तो कोई पुस्तक ही लिए पढते जाते हैं, रोते जाते हैं। किसी मे कोई दुर्व्यसन देखा, आप सोच करने लगे। कहा तक कहिए, जहा समझने की शक्ति हुई कि बस बात २ मे चिता । चित्त और चिता का कुछ ऐसा सम्बन्ध है कि जदे होते ही नहीं। और चिता की तारीफ शास्त्रकारो ने की ही है कि "चिताचितासमास्याता तस्माच्चितागरीयसी" । एक विदु अधिक है न । "चिता दहति निर्जीवं चिंता जीवष तंतनु" क्या ही सत्य है । शरीर की चिंता रही, घर की रही, सब पर तुर्रा देश की चिंता । खूशठ दास यह भी नहीं पूछते कि "क्यो मरे जाते हो"। पर देशभक इस लिए जीव होमे देते हैं कि इनका निस्तार हो। इसी से कहते हैं कि समझदार की मौत है। ख. २, सं० ५ (१५ जुलाई सम् १८८४ ई.)