पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/८

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बृहत संकलन और विस्तृत समीक्षा की आवश्यकता बनी हुई थी। अतः काशी 'नागरी–प्रचारिणी समा ने बब 'प्रतापनारायण–ग्रंथावली' के संपादन का कार्य मुझे सौंपा तो मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया।

'ग्रंथावलीग्रंथावली' के दो खंडों में प्रकाशन की योजना बनाई गई। पहले खंड में मिश्रजी के लेख संकलित हैं। दूसरे खंड में उनके उपलब्ध नाटक, कविताएं तथा पत्र आदि प्रकाशित होंगे।

प्रस्तुत ग्रंथावलो में लेखक के दो सौ से ऊपर लेख और परिशिष्टांश में 'ब्राह्मण'-संबंधी टिप्पणियां आदि संकलित हैं। कुछ लेख बच रहे हैं, उनकी प्रतिलिपि समय से सुलभ न हो सकी अतः इस बार उनका प्रकाशन न हो सका। फिर भी जो लेख संकलित हैं उनमें लेखक की सारी विशेषताएं उजागर हैं। ये सभी लेख 'ब्राह्मण' की उपलब्ध प्रतियों से एकत्र किए गए हैं। कुछ रचनाएं अन्यत्र भी छपी होंगी, "हिंदु- स्थान' के अपने संपादन काल में भी मिश्र जी ने कुछ लिखा होगा। ऐसी रचनाओं को प्राप्त करने का कोई साधन सुलभ न हो सका।

विलंब की आशंका से 'ग्रंथावली' के इस खंड में पं० प्रतापनारायण के कर्तृत्व की समीक्षा न जा सकी। अब वह दूसरे खंड की भूमिका के रूप में आएगी। दूसरे खंड की सामग्री अब प्रेस में जाने ही वाली है।

कुछ को छोड़, संकलित सामग्री की प्रतिलिपि 'ब्राह्मण' से हुई है। अधिकांश रचनाएं टंकित हुई और शेष की प्रतिलिपि में कई हाथ लगे। दोनों ही प्रकार की प्रतिलिपियों में अशुद्धियां थी पर हाथ वाली कापियों में तो स्थान स्थान पर भारी गड़बड़ी मिली। अधिकांश सामग्री मुद्रित हो जाने पर इधर प्रयाग जाने का मौका मिला तो मैंने . 'ब्राह्मण' के उपलब्ध अंकों की विषयसूची बनवाते समय देखा कि इन प्रतिलिपिको ने और तो और, कुछ लेखों की प्रकाशन-तिथि का भी गलत निर्देश कर दिया है। पं० प्रतापनारायण यों ही लापरवाह लेखक हैं; उनके लेखों मे फारसी और संस्कृत के उद्धरण अक्सर अशुद्ध मिलते हैं, वाक्य प्रायः लबे और अविन्यस्त हो जाते हैं, व्याकरण संबंधी त्रुटियां और एकदेशीय प्रयोग बिखरे मिलते हैं, अक्षरविन्यास यदा कदा विलक्षण ढंग का दिखाई देता है——इन सब के साथ मिलकर प्रतिलिपिकों की लापरवाही ने बार बार उलझनें डाली । ऐसी स्थिति में शुद्धि-पत्र का प्रसारण स्वाभाविक है। संस्कृत और फारसी के उद्धरणों को, जहां तक दृष्टि पहुँची है, शुद्ध कर दिया गया है-लेख में ही या शुद्धि-पत्र में। शुद्धि-पत्र में निर्दिष्ट अशुद्धियों के अतिरिक्त लेखों में दो व्याकरण संबंधी त्रुटि या अक्षरविन्यास की विलक्षणता देख पड़े उसे मूल लेखक की ही त्रुटि समझना चाहिए। प्रतापनारायण जी प्रायः बह को वुह, पृथक् को प्रथक, पतिव्रता को पतिवृता, प्रश्न को प्रष्ण, लेखनी को लेखणी, ऋषि और ऋचा को रिषि और रिचा मादि लिखते थे। इनमें भी एकरूपता नहीं-कही वह लिखेंगे, कही वुह । और व में उनके यहां अभेद संबंध है। ऐक्यता, निराशता,